Book Title: Kalpasutra
Author(s): Bhadrabahuswami, Vinaysagar
Publisher: Rajasthan Prakruti Bharati Sansthan Jaipur

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Page 426
________________ ( " ) Jain Education International करण हैं, जो १५वीं शती के वास्तु में प्रयुक्त टाइलों के अलंकरणों से मिलते हैं । इस चित्रावली में रंग-योजना तथा कारीगरी के विकसित तकनीक के दर्शन होते हैं । संभवतः सर्वाधिक सुन्दर एवं विपुल चित्रित कल्पसूत्र की प्रति देवशा नो पाड़ो भण्डार, ग्रहमदाबाद की प्रति है । यद्यपि इस पर कोई तिथि नहीं दी गई है किन्तु शैली की दृष्टि से इसे प्रायः १४७५ ई० में रखा जा सकता है। परम्परागत विषय तथा संयोजन निश्चित होने से कलाकार को मुख्य दृश्य में तो अपनी प्रतिभा दिखाने का विशेष अवसर न मिला पर हाशियों में तो विविधता बिखरी पड़ी है। घने वृक्षादि तथा फूलों वाले पौधे, रंगीन चिड़िया, जीवन्त पशु, झरनों एवं तालाबों में स्नान करते पारसी लोग और विविध रंगों के वस्त्र पहने विभिन्न मुद्राओं में अंकित कन्याएं इस चित्रावली की विशेषताएं हैं। इस पोथी का प्रमुख आकर्षण भरत के नाट्यशास्त्र पर ग्राधारित विभिन्न नृत्य एवं संगीत की मुद्राएं हैं। ये ही प्राकृतियां परवर्ती रागमाला चित्रों का पूर्वरूप हैं । कल्पसूत्र चित्रण के क्षेत्र में पश्चिमी भारतीय शैली की संभवतः यही सबसे बड़ी उपलब्धि थी। इसके बाद भी यद्यपि काम तो होता रहा, किन्तु इसके जैसी कृति नहीं बनी । १५वीं शती ई० के अन्तिम चरण में कल्पसूत्र की कई प्रतियां बनीं, जो शैली की दृष्टि से अच्छी हैं । १६वीं शती में भी श्रावकगण सचित्र कल्पसूत्र बनवाते थे और अपने गुरुयों को भेंट करते थे । प्रस्तुत प्रति, राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर के संग्रह में है ( ग्र० सं० ५३५४) । इसका चित्ररण वि०सं० १५६३ ( ई० सन् १५०६ ) में राजस्थान के भीनमाल नगर में हुया था जो प्राचीन काल में सांस्कृतिक एवं धार्मिक केन्द्र था । भानुमेरु के उपदेशों से प्रेरित हो लोला श्रावक एवं उसके परिवार के सदस्यों ने वाचक विवेकशेखर के लिये यह प्रति तैयार करवाई। इसमें १३६ पत्र हैं, जिनमें ३६ चित्र बने हैं। इस प्रति का विस्तृत परिचय प्रस्तावना में दिया जा चुका है अतएव यहां उसकी विशेष चर्चा न कर चित्रों की शैली और उनसे सम्बद्ध विवरण दिये जायेंगे । कागज के लम्बे पत्रों पर प्रत्येक में सात पंक्तियां लिखी हैं और इन्हीं पर लम्बोतरे खानों में For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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