Book Title: Kalashamrut Part 4
Author(s): Kanjiswami
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust
View full book text
________________
૫૩૪
કલશામૃત ભાગ-૪ निरासपीछे. (यो ) जो दरवास्रव रूप न होई। जहं भावास्रव भाव न कोई।। जाकी दसा ग्यानमय लहिए। सो ग्यातार निरास्रव कहिए।।४।।
(सश-४-१००)
સમ્યજ્ઞાની નિરાસવ રહે છે (સવૈયા એકત્રીસા) जेते मनगोचर प्रगट-बुद्धि-पूरवक,
तिह परिनामनकी मतता हरतु है। मनसौं अगोचर अबुद्धि-पूरवक भाव,
तिनके विनासिवेकौं उद्दिम धरतु है।। याही भांति पर परनतिकौ पतन करै,
मोखकौ जतन करै भौ-जल तरतु है। ऐसे ग्यानवंत ते निरास्रव कहावैं सदा, जिन्हिकौ सुजस सुविचच्छन करतु है।।५।।
(लश-५-१०१)
शिष्यनो प्रश्र. (सपैया तेवीस) ज्यौं जगमैं विचरै मतिमंद,
सुछंद सदा वरतै बुध तैसो। चंचल चित्त असंजित वैन,
सरीर-सनेह जथावत जैसो।। भोग संजोग परिग्रह संग्रह,
मोह विलास करै जहं ऐसो। पूछत सिष्य आचारजसौं यह, सम्यकवंत निरास्रव कैसो।।६।।
(१२--१०२)

Page Navigation
1 ... 548 549 550 551 552 553 554 555 556 557 558 559 560 561 562 563 564 565 566 567 568 569 570 571 572