Book Title: Kalashamrut Part 4
Author(s): Kanjiswami
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust
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કલશામૃત ભાગ-૪ एकता न दुहूँ माँहि तातै वाँछा फुरै नांहि,
ऐसे भ्रम कारजको मूरख चहत हैं। सतत रहैं सचेत परसौं न करें हेत, यातै ग्यानवंतकौ अवंछक कहत हैं।।३३।।
(१२-33-१५3)
પરિગ્રહમાં રહેવા છતાં પણ જ્ઞાની જીવ નિષ્પરિગ્રહી છે એના ઉપર દેષ્ટાંત.
(सपैया त्रीस) जैसैं फिटकड़ी लोद हरड़ेकी पुट बिना,
स्वेत वस्त्र डारिये मजीठ रंग नीरमैं। भीग्यौ रहै चिरकाल सर्वथा न होइ लाल ,
भेदै नहि अंतर सुफेदी रहै चीरमैं।। सैं समकितवंत राग द्वेष मोह बिनु,
___रहै निशि वासर परिग्रहकी भीरमैं। पूरव करम हरै नूतन न बंध करै, जाचै न जगत-सुख राचै न सरीरमैं ।।३४ ।।
(लश३४-१५४)
वणीजैसे काहू देशकौ बसैया बलवंत नर,
जंगलमैं जाइ मधु-छत्ताकौं गहतु है। वाकौं लपटांहि चहुओर मधु-मच्छिका पै,
___ कंबलकी ओटसौं अडंकित रहतु है।। तैसैं समकिती सिवसत्ताकौ स्वरूप साथै,
उदैकी उपाधिकौं समाधिसी कहतु है। पहिरै सहजको सनाह मनमैं उछाह, ठानै सुख-राह उदवेग न लहतु है।।३५ ।।
(-3५-१५५)

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