Book Title: Kalashamrut Part 4
Author(s): Kanjiswami
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust

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Page 568
________________ ૫૫૨ કલશામૃત ભાગ-૪ एकता न दुहूँ माँहि तातै वाँछा फुरै नांहि, ऐसे भ्रम कारजको मूरख चहत हैं। सतत रहैं सचेत परसौं न करें हेत, यातै ग्यानवंतकौ अवंछक कहत हैं।।३३।। (१२-33-१५3) પરિગ્રહમાં રહેવા છતાં પણ જ્ઞાની જીવ નિષ્પરિગ્રહી છે એના ઉપર દેષ્ટાંત. (सपैया त्रीस) जैसैं फिटकड़ी लोद हरड़ेकी पुट बिना, स्वेत वस्त्र डारिये मजीठ रंग नीरमैं। भीग्यौ रहै चिरकाल सर्वथा न होइ लाल , भेदै नहि अंतर सुफेदी रहै चीरमैं।। सैं समकितवंत राग द्वेष मोह बिनु, ___रहै निशि वासर परिग्रहकी भीरमैं। पूरव करम हरै नूतन न बंध करै, जाचै न जगत-सुख राचै न सरीरमैं ।।३४ ।। (लश३४-१५४) वणीजैसे काहू देशकौ बसैया बलवंत नर, जंगलमैं जाइ मधु-छत्ताकौं गहतु है। वाकौं लपटांहि चहुओर मधु-मच्छिका पै, ___ कंबलकी ओटसौं अडंकित रहतु है।। तैसैं समकिती सिवसत्ताकौ स्वरूप साथै, उदैकी उपाधिकौं समाधिसी कहतु है। पहिरै सहजको सनाह मनमैं उछाह, ठानै सुख-राह उदवेग न लहतु है।।३५ ।। (-3५-१५५)

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