Book Title: Kailas Shrutasagar Granthsuchi Vol 15
Author(s): Mahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publisher: Mahavir Jain Aradhana Kendra Koba
View full book text
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
हस्तलिखित जैन साहित्य १.१.१५
www.kobatirth.org
७४. पे. नाम. वीरजिन स्तवन, पृ. ४७अ - ४९अ, संपूर्ण.
दुरिअरयसमीर स्तोत्र, आ. जिनवल्लभसूरि, प्रा., पद्य, आदि: दुरियरवसमीरं मोहपंको अंतिः सवा पायप्पणामो तुह,
गाथा-४४.
७५. पे. नाम, सप्तस्मरण, पृ. ४९-५७अ संपूर्ण.
सप्तस्मरण-खरतरगच्छीय, मु. . भिन्न भिन्न कर्तृक, प्रा., पद्य, आदि: अजिअं जिअ सव्वभयं, अंति: (-), (अपूर्ण, पू. वि. प्रतिलेखक द्वारा अपूर्ण., सप्तम स्मरण नहीं लिखा है.)
७६. पे. नाम. जिनपंजर स्तोत्र, पृ. ५७-५८ अ, संपूर्ण.
आ. कमलप्रभसूरि, सं., पद्य, आदिः ॐ ह्रीं श्रीं अर्ह, अंतिः श्रीकमल प्रभाख्यः श्लोक-२५.
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
७७. पे. नाम ऋषभ मंडल स्तोत्र, पृ. ५८अ ६० अ, संपूर्ण.
ऋषिमंडल स्तोत्र, सं., पद्य, आदि आद्यंताक्षरसंलक्ष्यम, अंतिः लभते पदमुत्तमम्, श्लोक-६३. ६२६३३. (#) लघुक्षेत्रसमास सह बालावबोध, संपूर्ण, वि. १८८३, मार्गशीर्ष कृष्ण, ४, शनिवार, मध्यम, पृ. ५३,
ले. स्थल. लक्ष्मणापुर प्रले. मु. धर्मचंद्र (गुरु आ. कांतिसागरसूरि, विजयगच्छ); गुपि आ. कांतिसागरसूरि प्र. ले. पु. सामान्य, प्र. वि. अक्षरों की स्याही फैल गयी है, जैवे. (२३.५४१३, १५-१८४३४-३९).
४३९
"
लघुक्षेत्रसमास प्रकरण, आ. रत्नशेखरसूरि, प्रा., पद्य, वि. १५वी, आदि: वीरं जयसेहरपयपयट्ठिय; अंति: कुसलरंगमयं पसिद्ध अधिकार-६, गावा- २६३.
,
लघुक्षेत्रसमास प्रकरण - बालावबोध, मु. उदयसागर, मा.गु. गद्य वि. १६७६, आदि: निश्शेषज्ञान दायितं अंति प्रसादमाधाय तत्सर्वं.
६२६३४.
(+#) बृहत्संग्रहणी सह टबार्थ, संपूर्ण, वि. १७९६, आश्विन कृष्ण, १४, गुरुवार, मध्यम, पृ. ४९ - १ (१३*) =४८,
. स्थल. वृंदावतीनगर, प्रले. मु. नगविमल (गुरु मु. विवेकविमल); गुपि. मु. विवेकविमल (गुरु मु. रत्नविमल); मु. रत्नवि
(गुरु मु. अमरविमल): मु. अमरविमल पढ श्राव घासीराम, प्र.ले.पु. मध्यम, प्र. वि. टिप्पण युक्त विशेष पाठ अक्षरों की स्याही फैल गयी है, जैवे. (२४४१३, ६३०-३५ ).
(+)
बृहत्संग्रहणी, आ. चंद्रसूरि, प्रा., पद्य, वि. १२वी, आदि: नमिउं अरिहंताई ठिइ; अंति: जा वीरजिण तित्थं, गाथा-३३६.
बृहत्संग्रहणी - टबार्थ *, मा.गु., गद्य, आदि: नमीने अरिहंत१ सिद्धर; अंति: की सम्यग्दृष्टि कहै.
६२६३५. प्रश्नव्याकरणसूत्र सह टबार्थ, संपूर्ण, वि. २०वी, मध्यम, पृ. ४६ + २ (२८ से २९) = ४८, अन्य. मु. तिलोक ऋषि, मु. धनजी ऋषि, प्र. ले. पु. सामान्य, प्र. वि. पत्रांक- २८ तीन बार दिया गया है, परंतु पाठ क्रमश: है. दे. (२५x१२.५, ७४३३-३९).
प्रश्नव्याकरणसूत्र, आ. सुधर्मास्वामी, प्रा., प+ग, आदि: (-); अंति: सरीरधरे भविस्सइति, अध्याय- १०, गाथा - १२५०, ग्रं. १३००, (अपूर्ण, पू.वि. प्रतिलेखक द्वारा अपूर्ण., श्रुतस्कंध १, पंचम आश्रवद्वार के उपसंहार से लिखा है.) प्रश्नव्याकरणसूत्र -टबार्थ, मा.गु., गद्य, आदि: (-); अंति: धारणहार साधु भ० होइ, अपूर्ण, पू. वि. प्रतिलेखक द्वारा
अपूर्ण.
६२६३६.
'बृहत्कल्पसूत्र सह टबार्थ, संपूर्ण वि. १९५०, वैशाख शुक्र १३, मध्यम, पु. ४० प्र. वि. सं. १७३२ की प्रत के ऊपर से लिखी गयी है., टिप्पणयुक्त विशेष पाठ., दे., ( २४.५X१३, ६x२६).
बृहत्कल्पसूत्र, आ. भद्रबाहुस्वामी, प्रा., गद्य, आदि: नो कप्पति निगंधाण, अंतिः कप्पट्टिई तिबेमि, उद्देशक- ६,
ग्रं. ४७३.
बृहत्कल्पसूत्र-टबार्थ, मा.गु., गद्य, आदि: (१) हिवे इहां बृहत्कल्प, (२)नो० न कल्पइ नि० साधु, अंति: तुझ प्रती कहुं छं, ग्रं. ४०००.
६२६३७. (+) बृहत्संग्रहणी सूत्र, अपूर्ण, वि. १९वी, मध्यम, पृ. ३७ - १ (१) = ३६, प्र. वि. प्रतिलेखक ने प्रत नाम लघुसंग्रहणी लिखा है., पदच्छेद सूचक लकीरें जैदे. (२५.५x१२.५, ७२१).
"
"
बृहत्संग्रहणी, आ. चंद्रसूरि प्रा. पद्य वि. १२वी आदि (-); अंति: जा वीर जिणतित्यं गाथा- ३४९ (पू. वि. गाथा - ४
अपूर्ण से है.)
For Private and Personal Use Only

Page Navigation
1 ... 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550 551 552 553 554 555 556 557 558 559 560 561 562 563 564 565 566 567 568 569 570 571 572 573 574 575 576 577 578 579 580 581 582 583 584 585 586 587 588 589 590 591 592 593 594 595 596 597 598 599 600 601 602 603 604 605 606 607 608 609 610 611 612