Book Title: Kailas Shrutasagar Granthsuchi Vol 15
Author(s): Mahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publisher: Mahavir Jain Aradhana Kendra Koba

View full book text
Previous | Next

Page 500
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४८५ हस्तलिखित जैन साहित्य १.१.१५ ४. पे. नाम. होलिका व्याख्यान, पृ. १७आ, अपूर्ण, पू.वि. अंत के पत्र नहीं हैं. होलिकापर्व व्याख्यान, उपा. क्षमाकल्याण, सं., गद्य, वि. १८३५, आदि: होलिका फाल्गुने मासे; अंति: (-), (पू.वि. प्रारम्भिक पाठ मात्र है.) ६२९३३. (+#) चित्रसेनपद्मावती कथा, अपूर्ण, वि. १७२२, पौष शुक्ल, ५, श्रेष्ठ, पृ. २०-२(१,६)=१८, प्रले. मु. अमरसागर (गुरु ग. पुण्यसागर, तपगच्छ); पठ. मु. विबुधसागर (गुरु मु. अमरसागर); गुपि.ग. पुण्यसागर (गुरु मु. भागसागर, तपगच्छ); मु. भागसागर (गुरु ग. गुणसागर, तपगच्छ), प्र.ले.पु. मध्यम, प्र.वि. टिप्पण युक्त विशेष पाठ-संशोधित. अक्षरों की स्याही फैल गयी है, जैदे., (२५.५४११, १३४२९-३५). चित्रसेनपद्मावती चरित्र, आ. महीतिलकसूरि, सं., पद्य, वि. १५२४, आदि: (-); अंति: पाठक राजवल्लभः, __ श्लोक-५१०, (पू.वि. श्लोक-१३ अपूर्ण से ११५ अपूर्ण तक व श्लोक- १४० अपूर्ण से है.) ६२९३४. (+#) बृहत्संग्रहणी, अपूर्ण, वि. १९वी, मध्यम, पृ. १४-१(१२)=१३, पू.वि. बीच व अंत के पत्र नहीं हैं., प्र.वि. संशोधित. अक्षरों की स्याही फैल गयी है, जैदे., (२४.५४१०, ११४३३-३६). बृहत्संग्रहणी, आ. चंद्रसूरि, प्रा., पद्य, वि. १२वी, आदि: नमिउं अरिहंताई ठिइ; अंति: (-), (पू.वि. गाथा २२० अपूर्ण तक व गाथा २४३ अपूर्ण से २७७ अपूर्ण तक है.) ६२९३५. ज्ञाताधर्मकथांगसूत्र, अपूर्ण, वि. २०वी, श्रेष्ठ, पृ. १६-४(१ से ४)=१२, पू.वि. बीच के पत्र हैं., दे., (२३४१०.५, ५४२७-३२). ज्ञाताधर्मकथांगसूत्र, आ. सुधर्मास्वामी, प्रा., प+ग., आदि: (-); अंति: (-), (पू.वि. प्रथम अध्ययन अपूर्ण मात्र है.) ६२९३६. (+) उत्तमकुमार चरित्र, संपूर्ण, वि. १६८१, फाल्गुन शुक्ल, १३, बुधवार, श्रेष्ठ, पृ. १९, ले.स्थल. सुरत, प्रले. ग. गुणविजय (गुरु उपा. धर्मविजय गणि); गुपि. उपा. धर्मविजय गणि, प्र.ले.पु. सामान्य, प्र.वि. संशोधित., जैदे., (२६४११, १५४४२). ___ उत्तमकुमार चरित्र, मु. चारुचंद्र, सं., पद्य, आदि: वंदित्वा स्वगुरुन; अंति: कथेयं नंदतां चिरम्, श्लोक-६०२. ६२९३७. (+#) प्रतिक्रमणसूत्र संग्रह सह टबार्थ, अपूर्ण, वि. १९वी, मध्यम, पृ. २६-८(१,१७ से २३)=१८, पू.वि. प्रारंभ, बीच व अंत के पत्र नहीं हैं., प्र.वि. पदच्छेद सूचक लकीरें-संशोधित. अक्षरों की स्याही फैल गयी है, जैदे., (२६४११.५, ५४३२). श्रावकप्रतिक्रमणसूत्र संग्रह, संबद्ध, प्रा.,मा.गु., प+ग., आदि: (-); अंति: (-), (पू.वि. अतिचार गाथा ८ अपूर्ण तक व पच्चक्खाण अपूर्ण से खमासमणा अपूर्ण तक है.) श्रावकप्रतिक्रमणसूत्र-टबार्थ, मा.गु., गद्य, आदि: (-); अंति: (-). ६२९३८. (+) कर्मग्रंथ १ से ६, संपूर्ण, वि. १७९१, ज्येष्ठ शुक्ल, १, बुधवार, श्रेष्ठ, पृ. १८, कुल पे. ६, ले.स्थल. इंद्रप्रस्थनगर, प्रले. उपा. राजसोम गणि (गुरु उपा. कर्पूरविजय गणि, खरतरगच्छ); पठ. पं. रंगवल्लभ गणि (गुरु उपा. राजसोम गणि, खरतरगच्छ); गुपि. उपा. कर्पूरविजय गणि (गुरु ग. लक्ष्मीसमुद्र, खरतरगच्छ), प्र.ले.पु. सामान्य, प्र.वि. श्रीजिनकुशलसूरीश्वर सद्गुरु प्रसादात्, संशोधित., प्र.ले.श्लो. (११५१) सर्वेपि संतु सुखिनः, जैदे., (२५.५४११, १२४४०-४४). १. पे. नाम. कर्मविपाक कर्मग्रंथ, पृ. १आ-४अ, संपूर्ण. कर्मविपाक नव्य कर्मग्रंथ, आ. देवेंद्रसूरि, प्रा., पद्य, वि. १३वी-१४वी, आदि: सिरिवीरजिणं वंदिय; अंति: लिहिओ देविंदसूरिहिं, गाथा-६०. २. पे. नाम. कर्मस्तव कर्मग्रंथ, पृ. ४अ-५आ, संपूर्ण. कर्मस्तव नव्य कर्मग्रंथ, आ. देवेंद्रसूरि, प्रा., पद्य, वि. १३वी-१४वी, आदि: तह थुणिमो वीरजिणं; अंति: वंदियं नमहं तं वीर, गाथा-३४. ३. पे. नाम. बंधस्वामित्व कर्मग्रंथ, पृ. ५आ-६आ, संपूर्ण. बंधस्वामित्व नव्य कर्मग्रंथ, आ. देवेंद्रसूरि, प्रा., पद्य, वि. १३वी-१४वी, आदि: बंधविहाणविमुक्क; अंति: देविंदसूरि० सोडे, गाथा-२४. ४. पे. नाम. षड्शीति कर्मग्रंथ, पृ. ६आ-१०अ, संपूर्ण. For Private and Personal Use Only

Loading...

Page Navigation
1 ... 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550 551 552 553 554 555 556 557 558 559 560 561 562 563 564 565 566 567 568 569 570 571 572 573 574 575 576 577 578 579 580 581 582 583 584 585 586 587 588 589 590 591 592 593 594 595 596 597 598 599 600 601 602 603 604 605 606 607 608 609 610 611 612