Book Title: Jinabhashita 2008 06 07 Author(s): Ratanchand Jain Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra View full book textPage 8
________________ हुआ करता है, और वह एक बंधन हो जाता है। उस | वह लुटती चली जायेगी और हम उसको लुटाते चले बंधन को हम लोग नहीं समझ पाते, इसलिये हम अपने | जायेंगे। फलतः अपराधी बनते रहेंगे, दरिद्र बनते रहेंगे, आपको स्वतन्त्र अनुभव करना प्रारम्भ कर देते हैं, किन्तु | दीन बनते रहेंगे और भटकते रहेंगे। ध्यान रहे, राजकीय जब वह वचन से व काय से क्रियान्वित हो जाता है, सत्ता के माध्यम से जो चोर सिद्ध किया गया है, उस तब सोचते हैं कि कहीं जेल में बन्द न हो जायें। | चोर की व्यवस्था राजकीय सत्ता करती है और करती 'राजकीयसत्ता वह सत्ता है जो आपके शरीर व | आयी है, वह कम से कम दो समय खाना खिलाती वचन पर नियंत्रण रखती है और कर्मसिद्धान्त वह सत्ता | है। मैं पूछता हूँ कि इस (देह की) कारा में जो अनादि है जो आपके भावों के बारे में देखती रहती है।' इस काल से आत्मा बैठा है, इसके लिये क्या कोई ऐसी प्रकार आत्मा को इन दो सत्ताओं के बीच में रहकर | सत्ता है जो खाना खिला रही हो, पिला रही हो, अपनी अपने आप को सही-सही साहूकार स्थापित करना है। खुराक दे रही हो? आत्मा को इस कारा से निवृत्त करने जो ऐसा कर रहा है वह जिनेन्द्र भगवान् के मार्ग का | का प्रयास करें। महाराज! इसके लिये वकील भी तो प्रभावक है और साथ में अपनी आत्मा का भी उत्थान | चाहिये, फिर इसके लिये कोई कोर्ट भी तो चाहिये। कर रहा है। बाहर व आभ्यन्तर ये दोनों कार्य अनिवार्य | हाँ, आप वकील के माध्यम से इस कारा से तो छूट हैं। जब बाहर से भी जेल जाने से नहीं बच पाते तो, | सकते हो, सच-झूठ बोलकर छूट सकते हो, क्योंकि बहुमत ऐसी स्थिति में अन्दर क्या होगा? जब तक अन्दर नहीं का जमाना है, बहुमत हो जाये तो छूट जायेंगे और घूसखोरी पहुँचगे, तब तक हमारी निधि क्या है? यह आप लोगों | हो जायेगी तो छूट जायेंगे, किन्तु यहाँ पर कोई वकालत को विदित नहीं होगा। करनेवाला नहीं है, स्वयं चोर को वकालत करना स्वीकार एक व्यक्ति, जानता है कि कर्मसिद्धान्त क्या है | करना होगा। और किस प्रकार मुझे आचरण करना है, किन्तु वस्तुस्थिति वह आगे के लिये जब यह स्वीकृति ले लेता न समझने का परिणाम है कि वह इन दोनों सत्ताओं | है, अपनी आत्मा से कि मैं अब चोरी नहीं करूँगा, (राजकीय काम, कर्म) का उल्लघंन कर देता है। तब तक यह छोड़ा नहीं जायेगा। 'छूटे भव-भव जेल', राजकीयसत्ता कानून के अनुरूप आपको कुछ समय के | भव-भव में जो परिभ्रमण करना पड़ रहा है वह जेल लिए या आजीवन जेल में रख सकती है, किन्तु वह है, विस्तृत जेल। एक संकीर्ण, जेल हुआ करती है और कर्मसिद्धान्त? वहाँ पर भी कारा है? हाँ, वहाँ पर भी | एक विस्तृत जेल। विस्तृत जेल में घूमने के लिये भी कारा है और यहाँ पर भी कारा है। जहाँ कहीं मलिन- | कुछ सुविधायें होती हैं, किन्तु रहेगा तो जेल में ही। भाव हैं वहीं पर कारा है और कारा में रहनेवाला व्यक्ति | ये चार प्रकार की गतियाँ, चार प्रकार के भव क्या जेल कौन होता है चोर? हाँ तो आप लोग भी कारा में हैं। नहीं है? हम इस देहरूपी जेल में चोर के रूप में बैठकर एक व्यक्ति ने कहा कि- महाराज! जयपुर आये | भी दूसरे जेलवाले व्यक्तियों को (राजकीय सत्ता वाले हैं, तो एक प्रवचन कारागृह में भी दें, तो अच्छा होगा। कैदियों) जो कैदी हैं, उनको यदि उपदेश दें, तो एक तो क्या यह कारा नहीं है? संसार भी तो कारा है, यह | चोर दूसरे चोर को कभी डाँट नहीं सकता। चोर-चोर देह भी तो एक कारा है, जो व्यक्ति इसको कारा नहीं | को उपदेश नहीं दे सकता। वह कह सकता है कि समझता वह व्यक्ति महान भल में है। मैं कैसे कहँ कि आपसे अधिक शद्धता पवित्रता मेरे पास है, इसलिये मैं जेल में नहीं हूँ, क्योंकि यह देह भी तो जेल है, | उपदेश की कोई आवश्यकता नहीं हैं। कारा है। आप मात्र राजकीय सत्ता जेल को ही जेल हम अनादिकाल से अपराध करते आ रहे हैं, मानते हैं किन्तु वस्तुत: आत्मा के लिये विपरीत परिणमन | छूटने के भाव तो आज तक किसी ने किया ही नहीं। ही जेल है और हमारी वस्तु है 'आत्मतत्त्व', उसका प्रत्येक समय गलितयाँ होती चली जा रही हैं, अपराध जो विपरीत विरूप परिणमन है, वही हम लोगों के लिये होता चला जा रहा है और स्थिति यह बन गयी है कि जेल बना हुआ है। वह सत्ता (आत्मा) हमें दिख नहीं| हम अपने आपको अपराधी हैं कि नहीं यह तक नहीं पा रही और जब तक देखने में नहीं आयेगी, तब तक | समझ पा रहे। इसमें एक कारण है कि जब तक अपराधी 6 जून-जुलाई 2008 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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