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प्रकार का भेदभाव नहीं रहा, पंचेन्द्रिय विषयों की वासना। स्वाध्याय का फल या उनकी पूर्ति में अपना अमूल्य जीवन समर्पण करते| स्वाध्याय के परोक्ष और प्रत्यक्ष के भेद से दो हैं। उन जीवों के उद्धार के लिए स्वाध्याय को तप कहा| प्रकार के फल होते हैं। उनमें भी प्रत्यक्ष फल साक्षात् है। केवल तप ही नहीं, परम तप कहा है। और परम्परा के भेद से दो प्रकार का है। अज्ञान का कर्ममूलनाशक
विनाश, ज्ञानरूपी दिवाकर की उत्पत्ति, देव और मनुष्यादि तपस्याभ्यन्तरे बाह्ये स्थिते द्वादश तपाः, के द्वारा निरन्तर अनेक प्रकार से की जाने वाली अभ्यर्थना .. स्वाध्यायेन समं नास्ति न भूतो न भविष्यति॥ और प्रत्येक समय में होनेवाली असंख्यातगुणी रूप से
बह्वीभिर्भवकोटीभिः व्रताद्यत्कर्म नश्यति, कर्मों की निर्जरा इसे साक्षात् फल कहते हैं। प्राणिनः तत्क्षणादेव स्वाध्यायात् कथितं बुधैः॥
शिष्य-प्रशिष्यों आदि के द्वारा की जाने वाली निरन्तर 'कर्मक्षय के लिए स्वाध्याय के समान कोई अन्य | अनेक प्रकार की पूजा परम्पराफल है। तप समर्थ नहीं, स्वाध्याय के संयोग मात्र से कर्ममुक्त | परोक्षफल भी दो प्रकार है- प्रथम अभ्युदय और हो जाता है। कर्मनाश करने के लिए करोड़ों भव तक | दूसरा निःश्रेयस सुख। मनुष्य को व्रत धारण करना पड़ता है, किन्तु स्वाध्याय सातावेदनीयादि सुप्रशस्त कर्मों के तीव्र अनुभाग से वही कर्म तत्काल नष्ट होता है।' स्वाध्याय परिणाम- के उदय से प्राप्त हुआ इन्द्र, प्रतीन्द्र, दिगिन्द्र, त्रायस्त्रिंश विशुद्धि का कारण है। स्वाध्याय से पूर्वबद्ध निन्द्य कर्म व सामानिक आदि देवों का सुख तथा राजा, अधिराज, नष्ट होते हैं।
महाराज, मण्डलीक, अर्धमण्डलीक, महामण्डलीक, जिण-मोहींधण-जलणो तमंधयरदिणपरओ। अर्धचक्री, चक्रवर्ती पद की प्राप्ति अभ्युदय सुख है तथा कम्ममलकलुसपुरुषो जिणवयणमियोवहि सुहयो॥ अर्हन्तपद की प्राप्ति निःश्रेयस सुख है।
जिनागम मोहरूपी ईंधन को भस्म करने के लिए अतः अज्ञानरूपी अन्धकार के विनाशक, भव्यजीवों अग्नि के समान है, अज्ञानरूपी गाढ़ अन्धकार को नष्ट |
के हृदय को विकसित करनेवाले तथा मोक्षपथ को करनेके लिये सर्य के समान है. द्रव्यकर्म-भावकर्म का प्रकाशित करनेवाले सिद्धान्त (आगम) को भजो अर्थात् मार्जन करने के लिये समुद्र के समान है।
स्वाध्याय करो। भगवती शारदादेवी का भण्डार और उसकी ___ 'रवि शशि न हरे सो तम हराय, सो शास्त्र नमो | महिमा निराली एवं वचनातीत है। बहुप्रीति लाय।'
'आचार्य श्री धर्मसागर अभिन्नद ग्रन्थ'
से साभार
प्रतिष्ठाचार्य जयकुमार 'निशांत' को मातृ-शोक टीकमगढ़। देश के लब्धप्रतिष्ठ प्रतिष्ठाचार्य श्री पं. गुलाबचंद्र जैन 'पुष्प' की धर्मपत्नी एवं प्रतिष्ठाचार्य पं. जयकुमार जी निशांत टीकमगढ़ की माँ श्रीमती रामबाई जैन का ३१ मई २००८ को शाम ५ बजे धर्मध्यानपूर्वक स्वर्गवास हो गया है।
१० मई १९२६ को लार में जन्मी श्रीमती रामबाई सादा जीवन उच्च विचारवाली धर्मपरायण महिला थीं। आपके पाँच पुत्र हैं- शिखरचंद्र जैन, श्री उत्तमचंद जैन, श्री राजकुमार जैन, श्री ब्र. जय निशांत जैन, डॉ. प्रदीप जैन।
श्री पं. गुलाबचन्द्र 'पुष्प' जी के आवास 'पुष्प भवन' में ०३ जून को आयोजित शोकसभा में मध्यप्रदेश सरकार की ओर से म.प्र. हस्त-शिल्प निगम के अध्यक्ष श्री कपूरचंद्र घुवारा, विद्वानों की ओर से श्री पं. पवन दीवान मुरैना, श्री पं. राजेन्द्र चंदावली, श्री पं. सुरेन्द्र बड़ागाँव, युवा विद्वानों की ओर से श्री पं. सुनील 'संचय' शास्त्री, जैन मिलन की और से श्री जिनेन्द्र घुवारा, अखलेश सतभैया, पूर्व विधायक मगनलाल तथा जैन तीर्थक्षेत्र द्रोणगिरि, नैनागिरि, पपौरा, आहार जी, नवागढ़ के पदाधिकारियों ने, व अन्य सैकड़ों गणमान्य लोगों ने शोक श्रद्धांजलि अर्पित की।
सुनील जैन 'संचय'
16 जून-जुलाई 2008 जिनभाषित Jain Education International
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