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विद्वानों का मूल्याङ्कन
डॉ. शीतलचन्द्र जैन
जयपुर से प्रकाशित मासिक पत्रिका 'दिगम्बर जैन । जो उपमा दी है वह लिखने में मुझे स्वयं शर्म आती ज्योति' वर्ष 6 अंक 12 के पृ. 8 पर बड़े-बड़े अक्षरों है । पत्रकार महोदय ने जो साहित्य सृजन किया उस में विज्ञापन टाइप में लिखा है कि " कर्णधार और विद्वान् साहित्य में यथार्थ साधु और अयथार्थ साधु का भेद न देते नहीं लेते हैं" उक्त पंक्ति को पढ़कर मेरी नजरों कर सभी को एक तराजू पर तौल डाला, क्योंकि तौलनेके सामने कुछ ऐसे विद्वानों के चेहरे उपस्थित हो गये, वाले को कीमत से मतलब ! इसी प्रकार सभी विद्वानों जिन्होंने समाज से कुछ नहीं लिया, बल्कि सब कुछ को एक तराजू पर तौल डाला, जो उचित नहीं है। समाज को और जिनवाणी को भेंट कर दिया। मुझे पं० यदि किसी विद्वान् में आप अवगुण देखते हैं, तो आप हीरालाल जी सिद्धान्तशास्त्री, साडूमल का स्मरण आया, उसे व्यक्तिगत पत्र लिखें या विद्वानों की संस्थाओं के जो ब्यावर, राजस्थान में रहकर श्रुताराधना करते थे। मैंने मंच से कहिये और यदि आप में साहस है तो प्रमाण उनके विषय में किसी सन्त के मुखारविन्द से सुना था और युक्तिपूर्ण ढंग से विद्वान् / विद्वानों के नाम रेखाङ्कित कि पण्डित जी किसी ग्रन्थ का अनुवाद कर रहे थे कर अगले चिन्तन में स्पष्ट करें, जिससे हम संस्था के और उन्हें किसी शब्द को देखने के लिये शब्दकोश माध्यम से स्पष्टीकरण कर सकें, अन्यथा विद्वानों के की आवश्यकता महसूस हुई। इस बात को लेकर काफी प्रति इतनी घटिया शब्दावली का प्रयोग मत करें। आलोचना व्यग्र थे कि हाथ में पैसा नहीं, शब्दकोश खरीदें कैसे? करना सरल है। आप पनप रही विकृति के प्रति उचित उनकी धर्मपत्नी ने व्यग्रता का कारण पूछा, उन्होंने सब सुझाव और चिन्तन दें। आजकल अनेक पत्र आलोचना कुछ बता दिया, तब उनकी धर्मपत्नी ने कहा- " आप और प्रत्यालोचना निकाल कर सस्ती वाहवाही लूट रहे व्यग्र मत होइये मेरे पास स्वर्ण की एक वस्तु है, इसको हैं । इसी प्रकार कुछ लेखक भी निषेधात्मक और चाटुकारी बेचकर शब्दकोश ले आइये। ये स्वर्ण जिनवाणी की लेख लिखकर समाज को भ्रमित कर रहे हैं, जो स्वस्थ सेवा में काम आयेगा, इसका इससे अच्छा और क्या पत्रिकारिता नहीं है। उपयोग होगा? धन्य हैं वे विद्वान् जो इस प्रकार स्वाभिमान से जीते थे और महाधन्य हैं उनकी धर्मपत्नी जो इतना सन्तोष और जिनवाणी के प्रति समर्पणभाव रखती थीं। ऐसे अनेक विद्वान् थे और अभी भी मौजूद हैं और रहेंगे, जिन्होंने समाज के सामने हाथ नहीं फैलाये और जिनवाणी की सेवा करते थे और कर रहे हैं।
मैं कुछ पत्र-पत्रिकाओं को पढ़ता हूँ और मुनिराजों के प्रवचनों को सुनता हूँ, तो विद्वानों की आलोचना सुन कर ऐसा लगने लगता है, जैसे हमने विद्वान् बनकर कोई अपराध किया हो और जो मैं विद्वान् तैयार कर रहा हूँ, तो कोई अपराध तो नहीं कर रहा हूँ! मैं बहुत प्रयास करता हूँ कि किसी पत्रिका की या पत्रकार की आलोचना न करूँ, परन्तु जब किसी की सीमा पार हो जाती है, तो मुझे बाध्य होकर लिखना पड़ता है। अभी दिशाबोध अप्रैल 2008 के अंक में ऐसा अशिष्ट चिन्तन लिखा गया, जो पढ़कर मुझे काफी अरुचिकर लगा। आदरणीय पत्रकार / साहित्यकार विद्वान् ने पृ. 12 पर विद्वानों की
28 जून - जुलाई 2008 जिनभाषित
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दिशाबोध के इसी अंक में एक आदरणीय प्रतिष्ठाचार्य महोदय ने एक विचारणीय पक्ष रखा, जिसमें लिखा है कि एक प्रतिष्ठाचार्य की योग्यता क्या होना चाहिये और आगे लिखा है कि ब्रह्मचारीगण तो झोला लेकर नगर - नगर घूमते हुये प्रतिष्ठायें विधान आदि कराते
हैं।
मेरा विनम्र सुझाव है कि भारतवर्षीय श्रमण संस्कृति परीक्षालय सांगानेर ने प्रतिष्ठाचार्य पाठ्यक्रम बनाया है और वर्तमान में जितने युवा प्रतिष्ठाचार्य हैं, उनकी परीक्षा आप स्वयं लें, फिर स्वयं देखें कितने प्रतिष्ठाचार्यों में व्याकरण, न्याय, मंत्र, ज्योतिष, सिद्धान्त का ज्ञान है ? मेरा विश्वास है कि परम्परागत प्रतिष्ठाचार्यों की अपेक्षा नवोदित युवा प्रतिष्ठाचार्य ब्रह्मचारीगण ठीक हैं। अन्यथा इसका निर्णय परीक्षा से ही सम्भव है । व्यर्थ में नवोदित युवा प्रतिष्ठाचार्यों एवं ब्रह्मचारियों के प्रति अनास्था का वातावरण बनाना उचित नहीं हैं।
दिशाबोध के इसी अंक में एक प्रतिष्ठित विद्वान्
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