Book Title: Jinabhashita 2008 06 07
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 34
________________ सप्तविंशतिरुच्छ्वासाः संसारोन्मूलनक्षमे। । पृथक् द्विधैकवाक्यांतं मुक्त्वोच्छवासं जपेन्नव। सन्ति पंचनमस्कारे नवधा चिन्तिते सति॥ ६९॥ | वारान् गाथां प्रतिक्रम्य निषिद्यालोचयेत्ततः॥ ३७३॥ अमितगति श्रावकाचार। प्रतिष्ठापाठ- आचार्य जयसेन अर्थात् संसार के उन्मूलन में समर्थ पंचनमस्कार ____ अर्थात् णमोकार मंत्र के पंच पदनकू दोय दोय मंत्र के नौ बार चिन्तन करने पर सत्ताईस श्वासोच्छ्वास | वाक्य का उत्तर एक वाक्य का अन्त में उच्छवास छोड़ि माने जाते हैं। नववार जपे। आदि-कायोत्सर्ग एवं प्राणायाम, ध्यान की श्वास- बाहर से अन्दर की और वायु खींचने | सिद्धि और चित्त की स्थिरता के लिए प्राणायाम प्रशंसनीय को श्वास कहते हैं। है। इसके तीन भेद है। उच्छवास- भीतर की ओर से बाहर की ओर त्रिधा लक्षणभेदेन संस्मृतः पूर्वसूरिभिः। वायु निकालने को उच्छवास कहते हैं। पूरकः कुम्मकश्चैव रेचकस्तदनन्तरम्॥ कायोत्सर्ग की विधि ज्ञानार्णव २९/३ जिनेन्द्रमुद्रया गाथां ध्यायेत् प्रीतिविकस्वरे, अर्थात् पूर्वाचार्यों ने पवन के स्तम्भनरूप प्राणायाम हृत्पंकजे प्रवेश्यान्तर्निरुध्य मनसाऽनिलम्॥ २२॥ | को लक्षण भेद से तीन प्रकार कहा है- पूरक, कुम्भक, पृथग् द्विवयेकगाथांशचिन्तान्ते रेचयेच्छनैः। | और रेचक। नवकृत्वः प्रयोक्तैवं दहत्यंहः सुधीर्महत्॥ २३॥ | १. पूरक अनगारधर्मामृत / अध्याय ९ द्वादशान्तात्समाकृष्य य समीरः प्रपूर्यते। पूरा णमोकार मंत्र एक गाथारूप है। उसके तीन स पूरक इति ज्ञेयो वायुविज्ञानकोविदैः॥ अंश करके कायोत्सर्ग के समय, चिंतन करना चाहिए। ज्ञानार्णव २९/४ णमो अरिहंताणं, णमो, सिद्धाणं के साथ प्राणवायु अन्दर | अर्थात् तलुवे के छिद्र से अथवा द्वादश अंगुल ले जाकर उसका चिंतन करें और चिंतन के अंत में | पर्यन्त से वायु को खींचकर अपनी इच्छानुसार अपने - वायु धीरे-धीरे बाहर निकालें। फिर णमो आइरियाणं, शरीर में पूरण करे उसे वायुविज्ञानी पंडितों ने पूरक पवन णमो उवज्झायाणं के साथ प्राणवायु को अन्दर ले जाकर | कहा है। हृदय-कमल में इसका चिंतन करें, और चिंतन के अन्त | २. कुंभक में धीरे धीरे वायु बाहर निकालें। फिर णमो लोए सव्वसाहूणं निरुणद्धि स्थिरीकृत्य श्वसनं नाभिपंकजे। के साथ प्राणवायु अन्दर ले जावें और चिंतन के अन्त कुम्भवन्निर्भरः सोऽयं कुम्भकः परिकीर्तितः॥ में धीरे-धीरे बाहर निकालें। इस प्रकार तीन श्वासोच्छवास ज्ञानार्णव २९/५। में एक बार और सत्ताइस श्वासोच्छवासों में नौ बार णमोकार अर्थात् उस पूरक पवन को स्थिर करके नाभिमंत्र पढ़ना चाहिए। इस प्रकार की विधि अन्य आचार्यों | कमल में घड़े की तरह भर कर रोकें, नाभि से अन्य ने भी कही है। यथा जगह चलने न दे, उसे कुंभक कहते हैं। कुंभकं कुर्वन्नेव णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धांण इति | ३. रेचक गाथांशद्यं जप्त्वान्ते रेचकं कर्यात। अनेनैव विधिना णमो निःसार्यतेऽतियत्नेन यत्कोष्ठाच्छ्वसनं शनैः। आइरियाणं, णमो उवज्झायाणं इति गाथाशद्वयं तथा णमो स रेचक इति प्राज्ञैः प्रणीतः पवनागमे॥ लोए सव्व साहूणं इत्येकांशं जपेत्॥ प्रतिष्ठा तिलक (हिन्दी ज्ञानार्णव २९/६। अनुवाद) पृ. १३। अर्थात् जो अपने कोष्ठ से पवन को अति यत्न कुंभकयोग करते समय णमो अरिहंताणं, णमो | से बाहर निकाले उसको पवनाभ्यास के शास्त्रों में विद्वानों सिद्धाणं गाथा के दो अंशों का जाप करके रेचक अर्थात् | ने रेचक कहा है। रोकी हुई वायु को छोड़े। इसी विधि से णमो आइरियाणं प्राणायाम की इस विधि से ही आचार्यों ने कायोत्सर्ग णमो उवज्झायाणं इन दो गाथांशों को और णमो लोए के श्वासोच्छ्वासों का निर्धारण किया है, जिसमें णमोकार सव्व साहूणं इस गाथांश का जाप करें! | मंत्र के जाप की युति मन की चंचलता को रोककर 32 जून-जुलाई 2008 जिनभाषित - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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