Book Title: Jinabhashita 2008 06 07
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 46
________________ सुरीली आवाज मुग्धकारी है। आर्यिकारत्न श्री मृदुमति माताजी 'यथानाम तथा । दक्ष हैं। आपकी काव्यप्रतिभा विस्मयकारी है। तथा मधुर गुण' हैं, जिनकी वाणी में मिश्री सा माधुर्य, हृदय में वात्सल्य और प्राणिमात्र के प्रति असीम करुणा का सरोवर है। जिनकी चर्या और आचार में मूलाचार समाहित है । वे सरल उदारचेता तथा गुरु के प्रति असीम श्रद्धा-भक्ति से परिपूर्ण हैं । सतत् श्रुताभ्यास, आत्मचिन्तन, मनन - लेखन में लीन, आगम एवं अध्यात्म के तलस्पर्शीज्ञान के अर्जन में चेष्टारत, भक्तों के प्रति स्नेहार्द्र, धर्मोपदेश द्वारा जिनशासन की प्रभावना करनेवाली, शान्तपरिणामी तथा सत्यथप्रेरक हैं । जिज्ञासुओं की जिज्ञासाओं का आगमोक्त समाधान कर उन्हें सन्तुष्ट करती हैं। आप आगम-सिद्धान्त-न्याय - व्याकरण - काव्य-छन्दअलंकार आदि की विशेषज्ञा होने के साथ-साथ हिन्दी और संस्कृत में काव्यरचना करने में प्रवीण हैं। आपके द्वारा लिखित स्तुतियाँ, स्तवन बड़े मार्मिक, प्रभावी, हृदयस्पर्शी, श्रद्धा-भक्ति और उदात्तभावों से भरपूर I आपका चिन्तन प्रखर और लेखनी सशक्त है। अनेक कालजयी रचनाएँ आपकी लेखनी से प्रसूत हुई हैं । विद्याशाला, विद्यासागर उपबन, अनुपम गुरुस्तुति, पुरुदेव स्तवन, ओंकार - अर्चना, जिनवाणीस्तुति आदि आपकी प्रकाशित रचनाएँ हैं। संस्कृत के विविध छन्दों में सरस मधुर प्रसादगुणयुक्त मनोहारी रचना करने में भी आप आपके भाव, भाषा, शब्दचयन, बिम्ब प्रतिबिम्ब, उपमाएँ, उत्प्रेक्षाएँ सभी अनुपम और अनूठे हैं। शब्दों पर आपका पूर्ण अधिकार है । आपका शब्दचयन भावों और प्रतिपाद्य विषय के अनुकूल है। शब्द प्रभावी और भावाभिव्यक्ति में सक्षम हैं। सरल बोधगम्य साहित्यिक भाषा में अपने विचारों- भावों की सुन्दर अभिव्यक्ति देना आपकी विशेषता है। आत्मानुशासन के प्रकाशित इस संस्करण में संकलित / उद्धृत आपकी स्तुतियाँ और संस्कृत पद्य आपकी विशिष्ट काव्यप्रतिभा को प्रकट करते हैं । हम आशा करते हैं, कि आपकी लेखनी से भविष्य में और भी अप्रतिम अनूठी स्वतन्त्र काव्य-कृतियों की सर्जना होवे । आत्मानुशासन के इस नये प्रकाशित संस्करण का स्वाध्याय-मनन- चिन्तन कर अधिकाधिक भव्य प्राणी अपने आत्मकल्याण का पथ प्रशस्त करें। इसी सद्भावना के साथ हम वन्दनीय पूज्य माताजी के प्रति बड़े कृतज्ञ तथा श्रद्धावनत हैं कि उन्होंने इस वैराग्यवर्धक आत्मकल्याणकारी कृति का अन्वयार्थ एवं भद्रार्थ (भावार्थ ) लिखकर हम अज्ञप्राणियों पर महान् उपकार किया है। कानूनगोवार्ड, बीना (म.प्र.) 470 113 सुविधा नहीं संयम गर्मी का समय था, उन दिनों में मेरी शारीरिक अस्वस्थता बनी रहती थी। मैं आचार्य महाराज के पास गया और मैंने अपनी समस्या निवेदित करते हुये कहा - आचार्य श्री जी ! पेट में दर्द (जलन) हो रहा है। आचार्य महाराज ने कहा- गर्मी बहुत पड़ रही है, गर्मी के कारण ऐसा होता है और तुम्हारा कल अंतराय हो गया था, इसलिए पानी की कमी हो गई होगी सो पेट में जलन हो रही है। कुछ रुककर गंभीर स्वर में बोले कि क्या करें यह शरीर हमेशा सुविधा ही चाहता है, लेकिन इस मोक्षमार्ग में शरीर की और मन की मनमानी नहीं चल सकती । "वहिर्दुःखेषु अचेतनः " अर्थात् बाहरी दुःख के प्रति अचेतन हो जाओ, उसका संवेदन नहीं करो, सब ठीक हो जायेगा । 44 जून - जुलाई 2008 जिनभाषित Jain Education International आचार्य श्री के एक वाक्य में पूरा सार भरा हुआ है, हमें यह श्रद्धान कर लेना चाहिए कि मोक्षमार्ग में मन और शरीर को सुविधा नहीं देनी है, बल्कि, मन और इन्द्रियों को नियंत्रण में रखकर समताभाव बनाये रखना है। वे हमेशा चाहे अनुकूल-प्रतिकूल कैसी भी परिस्थिति रही आवें, मन में समता का भ बनाये रखते हैं और चेहरे पर कभी प्रतिकार जैसा भाव दिखाई नहीं देता । वश में हो सब इन्द्रियाँ, मन पर लगे लगाम । वेग बढ़े निर्वेग का, दूर नहीं फिर धाम ॥ मुनि श्री कुन्थुसागरकृत 'अनुभूत रास्ता' से साभार For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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