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कायोत्सर्ग एवं णमोकार मंत्र
पं. सनतकुमार विनोदकुमार जैन
कर्मसहित जीव निरन्तर संसारभ्रमण कर दुःख । ज्ञात्वां योऽचेतनं कायं नश्वरं कर्मनिर्मितम्। भोगता रहता है। इन दुःखों से छूटने के लिए तपपूर्वक न तस्य वर्तते कार्ये कायोत्सर्ग करोति सः॥ कर्मनिर्जरा करके भावविशुद्धि से वर्तमान में कर्मबन्ध
योगसार-५/५२ की प्रक्रिया से बचना ही श्रेयस्कर उपाय है। तप से अर्थात् देह को अचेतन, नश्वर, व कर्म निर्मित कर्मनिर्जरा होती है। तप के बारह भेदों में क्रमशः प्रथम | समझकर जो उसके पोषण आदि के अर्थ कोई कार्य तप की अपेक्षा द्वितीय तप के भेद से ज्यादा कर्मनिर्जरा | नहीं करता वह कायोत्सर्ग का धारक है। होती है, इसी क्रम से सबसे ज्यादा कर्मनिर्जरा ध्यान | कार्योत्सर्ग के भेद से होती है। ध्यानतप से पहले व्युत्सर्ग तप है। वह आसन एवं चिन्तन की अपेक्षा कायोत्सर्ग के चार जहाँ कर्मनिर्जरा का साधन है, वहीं ध्यानतप का कारण | भेद हैं। भी है। व्युत्सर्ग-बाहर के क्षेत्र, वास्तु आदि का और उट्ठिदउट्ठिद उट्ठिदणिविट्ठ उवविट्ठउट्ठिदो चैव। आभ्यन्तर में कषाय आदि का अथवा नित्य या अनित्य
उवविट्ठणिविट्ठोवि य काओसग्गो चदुट्ठाणो॥६७३॥ काल के लिए शरीर का त्याग करना व्युत्सर्ग तप है।
मूलाचार इसे कायोत्सर्ग भी कहते हैं।
अर्थात् उत्थितोत्थित, उत्थितनिविष्ट, उपविष्टोत्थित कायोत्सर्ग- जो दैवसिक, रात्रिक, चातुर्मासिक | और उपविष्टनिविष्ट इस प्रकार कायोत्सर्ग के चार भेद आदि दोषों के शमनार्थ किया जाता है, अथवा शरीर | हैं। से ममत्व छोड़कर उपसर्ग आदि को जीतता हुआ।। १. उत्थितोत्थित- जो कायोत्सर्ग में खड़ा हुआ अन्तर्महर्त, एक दिन, मास, व वर्ष पर्यन्त निश्चल खड़े | धर्म, शुक्ल ध्यानों को करता है, वह उत्थितोथित कार्योत्सर्ग रहना कायोत्सर्ग है।
कायाईपरदव्वे थिरभावं परिहरन्तु अप्पाणं। . २. उत्थितनिविष्ट- जो कायोत्सर्ग में खड़ा हुआ तस्स हवे तणुसग्गं जो झायइ णिव्विअप्पेण ॥ २॥ | आर्त, रौद्र ध्यान का करता है, वह उत्थिनिविष्ट कायोत्सर्ग
नियमसार / अधिकार ८ अर्थात् कायादि परद्रव्यों में स्थिरभाव छोड़कर जो | ३. उपविष्टिोत्थित- जो बैठे हुए धर्म, शुक्ल ध्यानों आत्मा को निर्विकल्प रूप से ध्याता है, उसे कायोत्सर्ग | को ध्याता है, वह उपविष्टोत्थित कायोत्सर्ग है। कहते हैं।
___४. उपविष्टोपविष्ट- जो बैठा हुआ आतं, रौद्र देस्सिय णियमादिसु जहुत्तमाणेण उत्तकालम्हि। ध्यानों का अवलंवन करता है, वह उपविष्टोपविष्ट जिणगुणचिंतणजुत्तो काओसग्गो तणुविसग्गो ॥ २८॥ कायोत्सर्ग है।
___मूलाचार | कार्योत्सर्ग के अन्य प्रकार से तीन भेद हैंअर्थात् दैवसिक निश्चित क्रियाओं में यथोक्त काल मनसा शरीरे ममेदं भावनिवृत्तिः मानसः कायोत्सर्गः। प्रमाण पर्यन्त उत्तमक्षमा आदि जिनगुणों की भावना सहित | प्रलम्बभुजस्य चतुरङ गुलमात्रपादान्तरस्य निश्चलावस्थानं देह में ममत्व को छोड़ना कायोत्सर्ग है।
कायेन कार्योत्सर्गः॥ परिमितकालविषया शरीरे ममत्वनिर्वत्ति: कायोत्सर्गः। । (भगवती आराधना / विजयोदया टीका / गा. ५०९)
राजवार्तिक ६/२४ / ११ /५३०।। अर्थात् मन से शरीर में ममेदं (मम+इदं) यह अर्थात् परिमित काल के लिए शरीर से ममत्व | मेरा है, की बुद्धि की निवृत्ति मानस कायोत्सर्ग है। मैं का त्याग करना कायोत्सर्ग है।
| शरीर का त्याग करता हूँ, ऐसा वचनोच्चार करना वचन
30 जून-जुलाई 2008 जिनभाषित Jain Education International
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