Book Title: Jinabhashita 2008 06 07
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 31
________________ ने लिखा है कि विद्वान् भी अर्थप्रधानी बन गया, उसमें । की स्थिति तो ऐसी है कि पर्युषण पर्व पर सङ्गीतकार और विद्वान् दोनों जाते हैं, तो उसमें यह कहावत चरितार्थ होती है कि नैतिक बल चाहिये। ऐसी टिप्पणी करनेवालों को विद्वान एवं प्रतिष्ठाचार्य में अन्तर देखना होगा । आज का कोई भी विद्वान् समाज के आश्रित नहीं है, परन्तु समाज को जो कुछ बनता है वह देता ही है, लेता कुछ नहीं । इस टेक्नॉलॉजी के युग में कोई भी अभिभावक अपने बेटा-बेटी को विद्वान् विदुषी नहीं बनाना चाहता और जो विद्वान् बने हैं उनके परिश्रम को कोई नहीं जानता । किसी नीतिकार ने ठीक ही कहा है विद्वानेव हि जानाति विद्वज्जनपरिश्रमम् । न हि बन्ध्या विजानाति गुर्वीप्रसववेदनाम् ॥ अर्थात् विद्वान् के परिश्रम को विद्वान् ही जानता है, जिस तरह प्रसव की गहन वेदना को प्रसव करनेवाली स्त्री ही अनुभव कर सकती है, जान सकती है, बन्ध्या नहीं । आज का श्रावक प्रतिष्ठाचार्य को ही विद्वान् मान बैठा, क्योंकि सिद्धान्त के ज्ञाता विद्वान् अंगुली पर गिनने योग्य हैं। आज समाज को प्रतिष्ठाचार्यों की आवश्यकता है, क्योंकि वर्तमान में 75 प्रतिशत मुनिराज क्रियाकाण्डों ■ में श्रावकों को उलझा कर रखते हैं। यही कारण है कि पञ्चकल्याणकों और अनुष्ठानों की चकाचौंध है। इन अवसरों पर विद्वानों के द्वारा प्रवचन नहीं कराये जाते हैं, अपितु कोई विद्वान् भूल से बुला लिया जाता है, तो सायंकाल बड़ी मुश्किल से 15-25 मिनट का समय दिया जाता है। इन अनुष्ठानों में पुजारियों का महत्त्व ज्यादा होता है और सैद्धान्तिक विद्वान् का महत्त्व कम । आज प्रतिष्ठाचार्य पूर्णरूपेण समाजाश्रित हैं और समाज प्रतिष्ठाचार्य एवं सङ्गीतकार पर आश्रित है । विद्वान् श्री सुरेशचन्द्र जैन वरगीवाले सम्मानित विश्व वंदनीय भगवान् महावीर की जयंती के पावन प्रसंग पर अहिंसा सम्मेलन में जैन नवयुवक सभा, जैन- पंचायत सभा एवं समग्र जैन- समाज की ओर से राष्ट्र में शाकाहार अहिंसा धर्म का शंखनाद करनेवाले श्री सुरेशचंद जैन वरगीवालों को अहिंसा मंच-अहिंसा सम्मान से अलंकृत किया गया। आपको दिल्ली से अहिंसा इंटरनेशनल अवार्ड से भी अलंकृत किया गया है। चन्दुलाल जैन, हनुमानताल, जबलपुर Jain Education International फूटी आँख विवेक की क्या करें जगदीश । कंचनियाँ को तीन सौ और पण्डितजी को तीस ॥ अतः उक्त परिस्थितियों को देखते हुये पत्रकारों, साहित्यकारों, नेतृत्ववर्ग, मुनिराजों एवं श्रावकों से निवेदन है कि विद्वानों में एवं प्रतिष्ठाचार्यों में भेद करके ही कलम चलाया करें। आज समाज सङ्गीतकार को इक्कीस हजार से इक्यावन हजार तक न्यूनतम भेंटराशि नाच गाकर, प्रसन्न होकर देती है, तब प्रतिष्ठाचार्य को इससे कम देगी तो उसका असम्मान नहीं होगा ? विचार करें वह सम्मान राशि है, याचना नहीं है। विद्वान् एक ग्रन्थ की टीका एक वर्ष में या एक आलेख 10 दिन में लिखता है, तो समाज क्या देती है? अभी भी कई विद्वान् जिनवाणी के संरक्षण एवं प्रचार-प्रसार में लगे हुये हैं, उनका समाज क्या मूल्यांकन कर रही है? अन्त में पत्रिकाओं के सम्पादकों से निवेदन है कि लेखक ने जो कुछ लिख दिया, वही नहीं छाप देना चाहिये, अपितु यह भी देखना चाहिये कि इस लेख को छापने से समाज पर क्या प्रभाव पड़ेगा? यदि अच्छा प्रभाव पड़े, तो अवश्य छापना चाहिये, अन्यथा लेखक, जिस व्यक्तिविशेष की आलोचना कर रहा है, उसका नाम छापे, जिससे वह व्यक्ति समझे और उन विकृतियों से दूर हो सके । कर्णधार भी समाज से लेते नहीं, देते ही हैं। इस पर आगे लिखूँगा । प्राचार्य, श्री दि. जैन आचार्य संस्कृत महाविद्यालय, जयपुर उज्ज्वल यश बारामती के व्यापारी श्री कल्पेश राजुलाल शहा एवं सौ. संगीता कल्पेश शहा (सोनगीरकर) की पुत्री कु. तेजल कल्पेश शहा १२ वीं की परीक्षा में अंग्रेजी मध्यम से तुलजाराम चतुरचंद विद्यालय बारामती से कॉमर्स (वाणिज्य शाखा) शाखा से 82.17% अंक प्राप्त करके संपूर्ण बारामती तहसील एवं विद्यालय प्रथम स्थान प्राप्त किया है । दि. जैन समाज को यह गौरवास्पद है। For Private & Personal Use Only जून - जुलाई 2008 जिनभाषित 29 www.jainelibrary.org

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