Book Title: Jinabhashita 2008 06 07
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 17
________________ मन स्थिर करने का उपाय : स्वाध्यायः परमं तपः आर्यिका श्री सुप्रभावती जी (आर्यिका इन्दुमती जी संघस्था) विश्व के सारे प्राणी शांति और सुख चाहते हैं। "सुष्ठु प्रज्ञातिशयार्थं, प्रशस्ताध्यवसायार्थं, परमरात-दिन शांति की खोज में लगे हुये हैं, लेकिन इस | संवेगार्थं, तपोवृद्ध्यर्थं अतिचारविशुद्ध्यर्थं अधीयते वैज्ञानिक युग में मानव का जीवन यंत्र के समान बन ह्यात्मतत्त्वं जिन-वचने इति वा स्वाध्यायः" बुद्धि बढाने रहा है। एक क्षणमात्र भी शांति नहीं। वास्तविक शांति- | के लिये, प्रशस्त व्यवसाय के लिये. परमसंवेग के लिये. अशांति का स्रोत स्थिर-अस्थिर चित्त में है, मनोमर्कट | तपवृद्धि के लिये आत्मतत्त्व का या जिनवचन का अध्ययन को वश में करने के लिए इस काल में स्वाध्याय के | करना स्वाध्याय कहलाता है। बराबर दूसरा कोई तप नहीं। अध्यात्म-उन्नति का साधन | स्वाध्याय का महत्व एक स्वाध्याय ही है, इससे वस्तुस्वरूप की प्राप्ति होती स्वाध्यायेन समं किंचिन्न कर्मक्षपणं क्षम, है, उसी तरह आत्मानुभूति की प्राप्ति होती है। यस्य संयोगमात्रेण नरो मुच्यते कर्मणा। __ अस्थिर मन अशांति का कारण है, मन की अशांति प्रशस्ताध्यवसायस्य स्वाध्यायो वृद्धिकारणम्, से व्यावहारिक कार्य में भी सफलता नहीं मिलती। अतः तेनेह प्राणिनां निन्द्यं संचितं कर्म नश्यति॥ अशान्त मन शास्त्राभ्यास से स्थिर होगा ऐसा आत्मानु- | संचित कर्मों का नाश स्वाध्याय से होता है। शासन में कहा है स्वाध्याय रत्नत्रय का मूल है अनेकान्तात्मार्थप्रसवफलभारातिविनते, स्वाध्यायाज्जायते ज्ञानं ज्ञानात्तत्त्वार्थसंग्रहः। वचःपर्णाकीर्णे विपुलनयशाखाशतयुते। तत्त्वार्थसंग्रहादेव श्रद्धानं तत्त्वगोचरम्॥ समुत्तुंगे सम्यक्प्रततमतिमूले प्रतिदिनं, तन्मध्यैकगतं पूतं तदाराधनलक्षणम। श्रुतस्कंधे श्रीमान् रमयतु मनोमर्कटममुम्॥ चारित्रं जायते तस्मिन्त्रयीमूलमथ मतम्॥ अनेकांतात्मक फलफूल के भार से अत्यन्त झुके (सिद्धान्तसार, अ. ११-२१,२२) हुये, स्याद्वादरूपी पत्तों से व्याप्त विपुलनयरूपी सैकड़ों 'स्वाध्याय से ज्ञान होता है, ज्ञान से जीवादि तत्त्वों शाखाओं युक्त, अत्यन्त विस्तृत श्रुतस्कंध में अपने मन | का संग्रह होता है, तत्त्वसंग्रह से श्रद्धान होता है, ज्ञान रूपी बन्दर को रमाना चाहिए। होता है, ज्ञान से चारित्र होता है।' स्वाध्याय संसारसमुद्र सत्प्ररूपणा (षट्खण्डागम) में श्लोक नं. ४७ में | पार करने के लिए निश्छिद्र नौका के समान है, कषायरूपी आचार्यों ने कहा ही है कि जिन्होंने सिद्धान्त का उत्तम | अटवी को जलाने के लिए दावानल है, स्वानुभूतिरूप प्रकार से अभ्यास किया है, ऐसे पुरुषों का ज्ञान सूर्य | समुद्र की वृद्धि के लिए पूर्णिमा का चन्द्रमा है। जिनसूत्र की किरणों के समान-निर्मल होता है, और जिन्होंने अपने | पढ़ने से मानव के हृदय में सम्यग्ज्ञानरूपी सूर्य का उदय चित्त को स्वाधीन किया है, वह चंद्रमा के समान उज्ज्वल | होता है, जिससे मिथ्यात्वरूपी अन्धकार नष्ट हो जाता होता है और परमागम के अभ्यास से मेरु के समान | है। स्व-पर भेदरूपी विज्ञान सर्वत्र फैल जाता है, जिससे निष्कम्प अनुपम सम्यग्दर्शन भी होता है। भव्यजन का चित्तकमल विकसित होता है। बुद्धि का फल आत्महित है, स्वाध्याय से आत्महित इस कलिकाल में जहाँ प्रत्येक मानव अन्न का होता है, निरन्तर भटकनेवाला मन स्वाध्याय से स्थिर कीट बना हुआ है, अन्न को ही अपना प्राण मान रहा होता है। है, ऐसे जीवों का कल्याण करने के लिए स्वाध्याय ही 'स्वाध्याय' - 'स्व' अर्थात अपने स्वरूप का परम तप है यह बुद्धिवन्त आचार्यों का कथन है, क्योंकि अध्ययन करना या 'सु' सम्यक् रीत्या 'आ' समन्तात् | जिनको रात-दिन का भेद नहीं, हेयोपादेय का ज्ञान नहीं, अधीयते इति स्वाध्यायः। जिनकी शुद्धाशुद्ध की भावना दूर हुई, मिला सो खाया, जब चाहे जैसा-जो मिला पिया, उनके विचारों में किसी जून-जुलाई 2008 जिनभाषित 15 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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