Book Title: Jinabhashita 2008 06 07
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 13
________________ तीन लोक का नाथ बनेगा? जो अपनी माँ को भी, जिसने | में परिणत करा देता है, इसमें कोई संदेह नहीं है। वह नौ माह तक अपनी कोख में रखा. प्रसति-पीडा सहन | पाँच सौ डाकुओं को लेकर मनिराज के पास चला जाता की और जन्म दिया, बहुत सारी रातें बिना नींद के काटी, है और नतमस्तक हो जाता है, 'बस मुझे भी अपना इतने उपकारों का उसने कछ भी प्रतिदान नहीं दिया।| चेला बना लीजिये और उन डाकुओं का, एक साथ जिसने माँ के ऊपर थोड़ी सी भी एहसान की बुद्धि, | उनके चरणों में समर्पण हो गया।' करुणा बुद्धि नहीं रखी, वह क्या तीन लोक के ऊपर डाकू व लड़ाकू बहुत किस्म के हुआ करते हैं, करुणा कर सकता है? यह बात सत्य है कि संसार | किन्तु जब वे रहस्य को समझ लेते हैं, तो उस डाकूपन में कोई किसी का नहीं है। वह सरदार सुनता है और को छोड़ देते हैं और वह माँ, जो बहुत धार्मिक बातें शिष्यों से कहता है- इसे मत छेड़ो। इसकी बातें सुनने | सुनती थी, सोचती है कि मुनिराज की दृष्टि में सब दो। जब वह सुनाना बन्द कर देती है, तब वह सरदार समान थे। यदि वे उस समय मुझे रास्ता बता पूछता है कि माँ तू क्या कह रही है? ये अभिशाप ये पाँच सौ मनुष्य (डाकुओं का दल) दिगम्बरी दीक्षा किसको दे रही है? माँ कहती है- मैं आपके लिये | नहीं ले सकते थे। नहीं कह रही थी, मैं तो उसके लिये कर रही हूँ, उसको | उनका वह मौन, उनकी वह समता क्या दया का दुत्कार रही हूँ, जिसको मैंने जन्म दिया है। इसलिये | निषेध कर रही थी? क्या क्रूरता का समर्थन कर रही अपने जीवन को भी धिक्कारती हूँ। सरदार ने कहा- | थी? नहीं, वह क्रूरता का समर्थन था, न किसी का पर यहाँ तो कोई है ही नहीं, तुम कह किसके लिये | आदर भाव, अपितु वह समता मुझे तो वस्तुस्थिति बता रही हो? माँ कहती है- यहाँ से कुछ दूर बैठा है न रही थी। वह नग्न। वही था मेरा लड़का, अब मै लड़का भी सर्वार्थसिद्धि में आचार्य श्री पूज्यपाद लिखते हैं नहीं कह सकती, वह बहुत दुष्ट है। घर छोड़कर यहाँ | कि वह नग्न दिगम्बर मुद्रा ही पर्याप्त है विश्व के लिये, भाग आया। जब तक घर पर था, प्रजा की रक्षा करता | वह सही-सही रास्ता बता सकती है, किन्तु उस नग्न था, यहाँ पर आ गया तो माँ को भी भूल गया, माँ | मुद्रा में समता की छटायें अवश्य आनी चाहिये। चोर के ऊपर थोड़ी सी भी उपकार की दृष्टि नहीं की, एक | व साहूकार सब के प्रति समान भाव जागृत होना चाहिए। बोल तक नहीं बोला वह। सरदार ने कहा- समझ गया | अन्दर वही आत्मा है, वही चेतन है, वही सत्ता है, जो हम पाँच सौ डाकू भी अभी उसी रास्ते आये थे, उसके | भगवान् के समान है, यह ऊपर का आवरण उतर जाये पास कुछ नहीं मिला, तो उसको पत्थर मारकर, नंगा| तो अन्दर वही आत्मा है। राख में छिपी हुई, राख में कह कर चले आये। उस समय भी उसके मुख से | दबी हुई ज्वाला के समान, बाहर राख है किन्तु उसको वचन नहीं निकले थे। माँ ने कहा-अच्छा! उस समय | फूंक मार दो, अन्दर वही उजाला, वही उष्णता है जो भी कुछ नहीं बोला, आपके साथ भी इसी प्रकार का | तीन लोक को प्रकाशित कर सकती है, वैकारिक परिणामों व्यवहार किया? सरदार बोला- मुझे तो वह बहुत पहुँचा | को समाप्त कर सकती है। समझने की बात यह है हुआ व्यक्ति दीख रहा है, क्योंकि माँ को समझ करके | कि यह हुई 'उन मुनिराज की समता, माँ की ममता माँ के लिये कुछ भी नहीं कहा। हमने गाली दी थी, और उन डाकुओं की क्षमता, जिन्होंने अपने जीवन भर पर आपने तो प्रणाम किया था उनके चरणों में, फिर के लिये डाकूपन की तिलांजलि दे दी।' भी हमारे लिये कोई अभिशाप नहीं था और आपके| अब मैं आपसे पूछना चाहूँगा कि इन सामने बैठे लये कोई वरदान नहीं। ऐसे व्यक्ति का मैं अवश्य दर्शन | डाकुओं का आत्म-समर्पण कब होगा? एक भवन में करूँगा। यह कहकर वह सरदार पहले माँ के चरण | रहकर भी डाकू बन रहा है और एक जंगल में रहकर छू लेता है। धन्य हो माँ! जो तुम्हारी कोख से इस प्रकार | भी डाकूपन छोड़ देता है। मैं किसको कहूँ डाकू, किसको का पुत्ररत्न उत्पन्न हुआ, जिस व्यक्ति की दृष्टि में संसार | कहूँ लड़ाकू और किसको कहूँ आत्मदृष्टि रखनेवाला समान है। जिस व्यक्ति की दृष्टि में समानता आ जाती | व्यक्ति? मैं कुछ भी नहीं कर सकता, किन्तु मात्र एक है, वह व्यक्ति सामनेवाले वैषम्य को भी श्रद्धा के रूप | सूचना तो आप लोगों को दे सकता हूँ कि यह संसार जून-जुलाई 2008 जिनभाषित || www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only

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