Book Title: Jinabhashita 2008 06 07 Author(s): Ratanchand Jain Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra View full book textPage 7
________________ नहीं हैं क्योंकि पगडण्डी ढूँढ लेते हैं आप, भले आपको। कहाँ तक इस रूप से कि भाव भी उत्पन्न न हों, बचते यहाँ पर दण्डित न किया जाये, किन्तु सिद्धान्त के अनुरूप | हैं? यह या तो भगवान् ही जानता है या आपकी आत्मा तो आप द्रव्य-प्रधान हैं। आचार्य समन्तभद्र ने अभिनन्दन | ही जानती है। महाराज! बिना चोरी के तो कार्य ही नहीं भगवान् की स्तुति करते हुये लिखा हैं कि- हे भगवान् ! | चल सकता, कई लोगों से सुना है मैंने ऐसा, दंग रह यह संसारी प्राणी, राजा के भय से, माता-पिता के भय गया मैं। आप लोगों ने इसको इतना फैला दिया कि से, अपनों से बड़ों के भय से, बलवानों के भय से, इसके बिना काम नहीं चलता, एक प्रकार से राजमार्ग अन्याय-अत्याचार, पाप, नहीं करता किन्तु करने के भाव | पर ही रख दिया। 'उपर से तो आप कहते हैं कि चोरी नहीं छोड़ता। ऐसा विद्वान् जो कि बन्धव्यवस्था को | करना पाप है और अन्दर क्या घटाटोप है, यह तो आप जाननेवाला है. साथ ही अत्याचारी-अनाचारी भी हो. तो | ही जानते हैं।' वह ऊपर से बच जाये, पर अन्दर से नहीं बच सकत।। एक समय की बात है। एक ब्राह्मण प्रतिदिन नदी राजकीय सत्ता का अधिकार अपराध के ऊपर | पर स्नान करने जाया करता था। एक दिन उसकी पत्नी है और वह उस अपराधी को दण्डित भी करती है, | भी उसके साथ गयी। ब्राह्मण स्नान करने के बाद सूर्य पर उस अपराधी के शरीर के ऊपर ही उसका अधिकार | के सामने खड़े होकर जल समर्पण करने लगा और मुख है-भावों के ऊपर उसका अधिकार नहीं है। भावों के | से उच्चारण करने लगा- 'जय हर हर महादेव, जय ऊपर अधिकार चलानेवाला कौन है? भावों के ऊपर | हर हर महादेव, और मन में है सो है ही।' 'जय हर अधिकार चलानेवाला एक ही है और वह है 'आणिवक | हर महादेव' तो समझ में आ गया पर मन में है सो शक्ति' जिसे कर्म कहते हैं। वह कर्म आपके चारों ओर | तो है ही सूत्र समझ में नहीं आया। पास ही स्नान करते ही रहता है, सी.आई.डी. के गुप्तचरों के समान। गुप्तचर | हुये एक मित्र ने पूछा कि- भैया, आज आपने सूत्र बदल छिपे-छिपे हर कार्य को देखा करते हैं और जहाँ कहीं दिया, क्या बात है? कुछ खास नहीं भाई, मैं प्रतिदिन 'भी आपका स्खलन देखने में आया, तो आपको पकड़ | जय हर हर गंगे, हर हर गंगे कहता था, किन्तु आज लेते हैं। इसी प्रकार ज्यों ही आत्मा के अन्दर कोई भाव | मेरी पत्नी भी साथ में आयी है, पत्नी का नाम गंगा उठा, त्यों ही वह कर्म अपने आपको (आपके साथ)| है, इसलिये आज कैसे कहूँ? अतः आज मैं कह रहा बाँध देता है, कर्म आपके प्रत्येक प्रदेश पर अपना अधिकार | हूँ 'जय हर हर महादेव और मन में है सो है ही।' जमा लेते हैं, आप फिर किसी भी प्रकार से बाहर नहीं इस प्रकार आप लोग भी राजकीयसत्ता से कहते । सकते. एक भावदण्ड है और दसरा द्रव्यदण्ड। मात्र हैं कि भई हम तो चोरी नहीं करेंगे. पर करे बिना भी वर्तमान में सांसारिक जेल में न जाना पड़े, इसके लिये | नहीं रहें, क्योंकि 'मन में है सो है ही' भगवान् जानते इस प्रकार के भावों से जब बचेंगे, तब वास्तविक रूप हैं आपकी स्थिति को, आपकी इस लीला को किस से उस चौर्यकार्य से बचेंगे और तभी साहूकार कहलायेंगे।| प्रकार हृदय में घटाटोप हो रहा है। बाहर से तो आपने उस साहूकारों का मजा भी आपको तभी मिल पायेगा। चोरी करना छोड़ दिया, बहुत अच्छा किया, पर अब आचार्य प्रश्न पूछते हैं कि- यहाँ पर भी और | अन्दर से भी छोड़ना आवश्यक है। अभी तक आप आगे भी इस बंध के माध्यम से दुःख-पीड़ा का अनुभव | लोगों ने छोड़ा थोड़े ही है। हम दूसरे पदार्थ का ग्रहण करना पड़ता है। ऐसा कौन-सा विद्वान् होगा जो कि राग- | कर भी नहीं सकते। अतः ऐसी स्थिति में उसका विमोचन द्वेष, मोह-मद करके, दूसरों को, पर को, अपने अन्दर | भी नहीं कर सकते, ऐसी धारणा बन गई है लोगों की। में रखने का भाव करके, बन्धन को सहर्ष स्वीकार करेगा? | पर जब वस्तु का परिणमन जानने में आ जायेगा, तब कोई नहीं है, इसका तात्पर्य यह हुआ कि विद्वान् तो | आप लोगों को विदित होगा कि वस्तुतः हम किसी को इस प्रकार के कार्य नहीं करेगा। ग्रहण नहीं कर सकते, किन्तु भावों के माध्यम से ग्रहण आप बाहर से बच रहे हैं और सत्ता भी बचने | किया जाता है। के लिये बाध्य कर रही है आप लोगों को, किन्तु आप जिस समय हम भावों का निर्माण करते हैं, उसी पगडण्डी तो ढूँढ ही लेते हैं, इसलिये आप चोरी से | समय जो हमारा कर्म सिद्धान्त है, उसके अनुरूप कार्य जून-जुलाई 2008 जिनभाषित 5 www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use OnlyPage Navigation
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