Book Title: Jinabhashita 2006 09 Author(s): Ratanchand Jain Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra View full book textPage 6
________________ लोभ की तासीर लोभ की तासीर ही यह है कि आशाएँ बढ़ती हैं, आश्वासन मिलते हैं और हाथ कुछ नहीं आता। एक उदाहरण है- एक व्यक्ति को किसी देवता ने प्रसन्न होकर एक शंख दे दिया। उस शंख की तासीर थी कि नहा-धोकर शंख को ही मिलता है।' फूँको, फिर उसके सामने जितनी इच्छा करो उतना मिल जाता था । उसको तो बड़ा मज़ा हो गया। बस, नहा-धोकर शंख फूंका और आकांक्षा की कि हजार रुपये, तो हजार रुपये मिल गये । एक दिन बाजूवाले ने देख लिया। बस, गड़बड़ यहीं से शुरू होती है कि बाजूवाला अपन को देखे या अपन बाजूवाले को देखें। बाजूवाले ने सोचा कि यह शंख तो अपने पास होना चाहिये। जो-जो अपने पास है वह नहीं दिखता, तो दूसरे के पास है हमें वह दिखता है। जो अपने न, दो ।' पास है वह दूसरे को दिखता है। सीधा-सा गणित है - जो अपने पास • वह दिखने लगे तो सारा लोभ नियन्त्रित हो जाय । नहीं, सारे संसार में जो चीजें हैं वे सब आसानी से दिखाई पड़ती है, पर मैंने क्या हासिल किया- मुझे ये दिखाई नहीं पड़ता। और एक असन्तोष मन के अन्दर निरन्तर बढ़ता ही चला जाता है । व्यक्तिगत असन्तोष, पारिवारिक असन्तोष, सामाजिक असन्तोष- कितने तरह से असन्तोष हमारे जीवन को इतनी-सी बात से घेर लेते हैं कि मेरे पास जो है उसे नहीं देखता हूँ, दूसरे के पास जो है वह दिखाई देता है मुझे क्या करें ? दूसरे के पास क्या है - इससे आँखें मींच लें क्या? नहीं भैया ! दूसरों के पास जो है वह उसमें खुश है- ऐसा मानकर जो अपने पास है उसमें आनन्द लें बस ! इतना तो कर सकते हैं? नहीं कर सकते? आहार की प्रक्रिया में मैं रोज देखता हूँ कि किसी को एक ग्रास देने को मिल जाता है, तो पहले तो उसको आनन्द आता है, लेकिन जैसे ही देखता है कि दूसरे को दो ग्रास देने को मिल गये, बस - सारा आनन्द खत्म! जबकि उसे भी एक ग्रास देने का मौका मिला है, पर उसका आनन्द नहीं है उसको, तब तक तो था जब तक दूसरे को दो ग्रास का मौका नहीं मिला था । बड़ा आश्चर्य होता है, अपन ने कैसी आदत बना ली अपनी ! इसको थोड़ा नियन्त्रित करें। अपन आनन्द लें उस चीज में जो अपने को प्राप्त है। हाँ तो, बाजूवाले ने देखा कि इसके पास बढ़िया शंख है तो उसने भी एक बाबाजी से शंख ले लिया। पर उस शंख से मिलता कुछ नहीं था, उसके सामने जितना माँगो वह उससे दुगना देने को बोलता था । उसने पड़ौसी से कहा'सुनो! मुझे भी एक बाबाजी ने शंख दिया है । ' 4 सितम्बर 2006 जिनभाषित Jain Education International लिया । 'कैसा शंख?' पड़ौसी ने पूछा । 'उससे जितना माँगो, उसका दुगुना मिलता है । ' 'दुगुना ! मेरे पास तो जो है, उससे जितना माँगो उतना मुनि श्री क्षमासागर जी 'ऐसा करें, बदल लें आपस में?' 'हाँ-हाँ, ऐसा ही करें।' पड़ौसी ने कहा । बस, हो गया काम ! बदल दिया और दुगुनेवाला ले मन में खुश! सबेरे उठे, जल्दी-जल्दी नहाया - धोया, और फिर शंख फूँका। कहा- 'एक लाख रुपये दो ।' शंख में से आवाज आई- 'एक लाख क्यों ? दो लो लेकिन आया एक भी नहीं । अरे ! पुरानेवाले में तो जितना माँगो उतना ही मिल जाता था, पर इसमें से केवल आवाज आई कि एक क्यों, दो लो न, दो, पर आया कुछ नहीं। तो उसने कहा- 'तुम देते क्यों नहीं? दो लाख दो।' i शंख में से फिर आवाज आई- 'दो क्यों! चार लो न चार ।' अब समझा में आ गई, जितना माँगते चले जाते हैं आश्वासन मिलता है उससे दुगुने का, पर हाथ में कुछ भी नहीं आता । संसार में हमारी जितनी पाने की आकांक्षा है, वह हमें सिर्फ आश्वासन देती है, मिलता-विलता कुछ नहीं है। जो हमने पाया है, अगर उसमें हम सन्तोष रख लेवें, तो संसार में फिर ऐसा कुछ नहीं है जो पाने को शेष रह जाए । पाते काहे के लिए हैं? आत्म- संतोष के लिए। पर आत्म- संतोष नहीं मिला और दुनियाभर की सारी चीजें मिल गईं। आज हमने बहुत सारे बच्चों से बात की, बहुत रिच फैमिली (धनी परिवार) के, अच्छे हाल। मेरे पास एक ही प्रश्न पूछते हैं कि कैसे सैल्फ सेटिस्फैक्शन गेन (आत्मसंतोष प्राप्त) करें? कैसे मिले आत्मसंतोष ? हमारी फैमिली (परिवार) बहुत रिच है, हमारा एजूकेशन (शिक्षा) भी बहुत हाई (ऊँची है, इसके बावजूद ये सारी उपलब्धियाँ व्यर्थ हैं अगर आत्म-सन्तोष नहीं है। पहली चीज है कि जो हमारे पास है उसे देखें । वर्तमान में ये भी प्रचलित हो गया है कि यदि हम सन्तोष धारण कर लेंगे, तो हमारी प्रगति रुक जायेगी। लेकिन ऐसा For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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