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तत्त्वार्थसूत्र में तत्त्वार्थश्रद्धान को सम्यक्त्व कहा है। समयसार | भावना करता है। आचार्य कुन्दकुन्द ने प्रवचनसार में जिस में भूतार्थनय से जाने गये तत्त्वार्थ के श्रद्धान को सम्यक्त्व अरहन्त अवस्था को पुण्य का फल कहा है, वह पुण्य ऐसा कहा है। मूल तत्त्व तो दो ही हैं - जीव और अजीव। इन्हीं | ही होता है, जो नहीं चाहते हुए भी बँधता है। के मिलन के फलस्वरूप आस्रव और बन्ध तत्त्व की निष्पत्ति सम्यग्दृष्टि श्रावक तो जिनपूजन प्रारम्भ करते हुए हुई। वे ही दो संसार के कारण हैं। ओर संसार से छूटने के भावना भाता है - उपाय संवर-निर्जरा हैं, उनका फल मोक्ष हैं। इनमें पुण्य
अस्मिन् ज्वलविमलकेवलबोधवह्नौ और पाप को मिलाने से नौ पदार्थ हो जाते हैं। तत्त्वार्थसूत्र की
पुण्यं समग्रमहमेकमना जुहोमि। टीका सर्वार्थसिद्धि, तत्त्वार्थवार्तिक आदि में यह स्पष्ट किया | __मैं इस प्रज्वलित निर्मल केवलज्ञानरूप अग्नि में है कि पुण्य और पाप का अन्तर्भाव आस्रव और बन्ध तत्त्व | एकाग्रमन होकर समग्र पुण्य की आहुति देता हूँ। इस प्रकार में होता है। इसलिये इन्हें पृथक तत्त्व नहीं माना है। अतः | जो पुण्यकार्य करते हुए पुण्य की आहुति देते हैं, उनकी आस्रव और बन्ध तत्त्व संसार के कारण होने से हेय हैं. तब | भावना परम्परा से मोक्ष का कारण होती है। उनमें गर्भित पुण्य और पापकर्म उपादेय कैसे हो सकते हैं अतः उक्त तत्त्वों में उपादेय जो एक जीव तत्त्व ही है,
और उनमें उपादेय बुद्धि रखने वाला सम्यग्दृष्टि कैसे हो उसी की यथार्थ श्रद्धा से सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है। इसमें सकता है ?
कोई मतभेद नहीं है। यह ठीक है कि शास्त्रकारों ने पुण्यकार्य करने की तत्त्वार्थसूत्र में जीव के पाँच भाव कहे हैं - औपशमिक, प्रेरणा की है। क्योंकि जीव को पाप कार्यों से बचाना है। अतः | क्षायोपशमिक, क्षायिक, औदयिक एवं पारिणामिक।इन पाँचों पुण्यकर्म की उपयोगिता पाप से बचने मात्र में है। किन्तु | भावों में से किस भाव से मोक्ष होता है, इसका खुलासा इससे पुण्य उपादेय नहीं हो जाता। सम्यग्दृष्टि भी पुण्य कार्य | आगम और अध्यात्म दोनों में किया गया है। करता है, किन्तु पण्यास्रव या पण्यबन्ध को उपादेय नहीं। धवला और जयधवला (पु. 1, पृ. 5) टीका से एक मानता। इसी से किन्हीं ग्रन्थकार ने सम्यग्दृष्टि के पुण्य को | गाथा उद्धृत है - परम्परा से मोक्ष का कारण कह दिया है।
ओदइया बंधयरा उवसमखयमिस्सया हुमोक्खयरा। __भावसंग्रह में आचार्य देवसेन ने इस विषय में जो भावो हु पारिणामिओ करणोभयवजिओ होई॥ कुछ कहा है वह पठनीय है। वह कहते हैं कि जब तक समयसार की टीका में जयसेनाचार्य ने आगम और गृहव्यापार नहीं छूटता, तब तक गृहव्यापार में होनेवाला पाप | अध्यात्म का समन्वय करते हुए लिखा है- औदयिक भाव भी नहीं छूटता। और जब तक पाप कार्यों का परिहार न हो, |
बन्धकारक हैं। औपशमिक, क्षायिक, मिश्रभाव मोक्षकारक तब तक पुण्यबन्धक कार्यों को मत छोड़ो, अन्यथा दुर्गति में | हैं। किन्तु पारिणामिकभाव बन्ध का भी कारण नहीं है और जाना होगा। जिसने गृहव्यापार से विरक्त होकर जिनमुद्रा मोक्ष का भी कारण नहीं है। औपशमिक, क्षायोपशमिक, धारण की है और प्रमादी नहीं है, उसे पुण्यबन्ध के कारणों | क्षायिक और औदयिक भाव पर्यायरूप हैं। शुद्ध पारिणामिक का त्याग करना चाहिये। पुण्यबन्ध बुरा नहीं है, पुण्यबन्ध की
द्रव्यरूप है। और परस्परसापेक्ष द्रव्यपर्यायरूप आत्मद्रव्य है। चाह बुरी है। स्वामी-कार्तिकेयानुप्रेक्षा (गा. 410 आदि) में | उनमें से जीवत्व, भव्यत्व, अभव्यत्व इन तीन पारिणामिक कहा है जो पुण्य की भी इच्छा करता है, वह संसार की इच्छा | भावों में से शक्तिरूप शुद्धजीवत्व-पारिणामिकभाव करता है, क्योंकि पुण्यबन्ध सुगति का कारण है और मोक्ष | शुद्धद्रव्यार्थिकनय से निरावरण है। उसकी संज्ञा शुद्धपारिणामिक पण्य के क्षय से प्राप्त होता है। पण्य की चाह से पण्यबन्ध | है। वह बन्ध और मोक्ष पर्यायरूप परिणति से रहित है। और नहीं होता। किन्तु जो पुण्य को नहीं चाहते, उनके ही सातिशय जो दस प्राणरूप जीवत्व, भव्यत्व तथा अभव्यत्व हैं, वे पुण्यबन्ध होता है। मन्द कषाय से पुण्यबन्ध होता है। अतः | पर्यायार्थिक नयाश्रित होने से अशुद्ध पारिणामिक भाव कहलाते पुण्य का हेत मन्द कषाय है और मन्दकषाय सम्यग्दष्टि के | हैं। इन तीनों में से भव्यत्व पारिणामिक भाव को ढाँकनेवाला ही होती है। क्योंकि वह पुण्य से प्राप्त होने वाले सांसारिक | पर्यायार्थिकनय से जीव के सम्यक्त्व आदि गुणों का घातक सुख को पाप का बीज मानता है। इसलिये वह न ऐसे सुख | मोहादि कर्म है। जब कालादि लब्धिवश भव्यत्व शक्ति की की वाँछा करता है और न ऐसे सुख के कारण पुण्यबन्ध की | व्यक्ति
| व्यक्ति होती है, तब यह जीव सहज शुद्ध पारिणामिकभाव10 सितम्बर 2006 जिनभाषित
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