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जिज्ञासा-सामाधान
पं. रतनलाल बैनाड़ा जिज्ञासा - गूढ़ ब्रह्मचारी कौन होते हैं?
| भी है - समाधान - धर्मसंग्रह श्रावकाचार 9/19-20 में इस एक्कस्स होति रुद्दा, कलहपिया णारदायणवसंखा। प्रकार कहा है -
सत्तम तेवीसंतिम तित्थयराणंच उवसग्गो॥1642॥ कुमारश्रमणा: सन्तः स्वीकृतागमविस्तराः।
अर्थ - हुण्डावसर्पिणी काल में ही ग्यारह रुद्र और बान्धवैर्धरणीनाथैर्दुःसहैर्वा परीषहैः॥ 19॥
कलहप्रिय नौ नारद होते हैं तथा सातवें, तेर्हसवें और अन्तिम आत्मनैवाऽथवा त्यक्तपरमेश्वररूपकाः ।
तीर्थंकरों पर उपसर्ग भी होता है अर्थात् हुण्डावसर्पिणी के गृहवासरता ये स्तुस्ते गूढब्रह्मचारिणः ॥ 20॥
अलावा अन्य कालों में रुद्र नहीं पाये जाते हैं। अर्थ - जिन्होंने कुमार काल में ही मुनि वेष धारण
2. अन्य मत के अनुसार हुण्डावसर्पिणी के अलावा, करके सिद्धान्त का अध्ययन किया है, वे फिर कभी अपने
अन्य उत्सर्पिणी आदि कालों में भी रुद्र की उत्पत्ति होती है। बन्धु लोगों के तथा राजादि के आग्रह से, दुःसह परीषहोपसर्गादि के न सहन होने से अथवा अपने आप ही उस धारण किये
अ - श्री हरिवंशपुराणकार आचार्य जिनसेन ने तो हए जिनरूप (मुनिवेष) को छोडकर गह कार्य में लगते हैं | अगली उत्सपिणी में होने वाले ग्यारह रुद्रों के नाम तक भी उन्हें जिनागम में गूढ़ ब्रह्मचारी कहा है। 19-20॥
दे दिये हैं। कहा भी है - ___ जिज्ञासा - तिर्यक् सामान्य और ऊर्ध्वतासामान्य की
प्रमदः संमदो हर्षः प्रकामः कामदो भवः।
हरो मनोभवो मारः कामो रुद्रस्तथाङ्गजः ।।571॥ क्या परिभाषा है ?
भव्याः कतिपयैरेवतेपि सेत्स्यन्ति जन्मभिः। समाधान - सामान्य परिणाम को तिर्यक्सामान्य कहते
रत्नत्रयपरित्राङ्गः सन्तः सन्तो नरोत्तमाः। 572॥ हैं और पूर्वोत्तर पर्यायों में रहनेवाले द्रव्य को ऊर्ध्वता सामान्य
अर्थ - प्रमद, सम्मद, हर्ष, प्रकाम, कामद, भव, हर, कहते हैं। जैसा कि परीक्षामुख 4/3-5 में कहा है -
मनोभव, मार, काम और अंगज ये ग्यारह रुद्र होंगे। ये सब सामान्य द्वेधा तिर्यगवंताभेदात॥3॥
भव्य होंगे तथा कुछ ही भवों में मोक्ष प्राप्त करेंगे। इनके सद्दशपरिणामस्तिर्यक् खण्डमुण्डादिषु गोत्ववत्॥4॥
शरीर भी रत्नत्रय से पवित्र होंगे तथा उत्तम महापुरुष होंगे। परापरविवर्तव्यापि द्रव्यमूर्ध्वता मृदिव स्थासादिषु॥5॥ अर्थ- सामान्य दो प्रकार का है - एक तिर्यक् सामान्य
आ - जम्बूदीपपण्णत्तिसंगहो ग्रन्थ के अनुसार सभी दूसरा ऊर्ध्वता सामान्य। तहाँ सामान्य परिणाम को तिर्यक
चतुर्थकालों में रुद्रों की उत्पत्ति होती है। जैसा कहा हैसामान्य कहते हैं, जैसे गोत्व सामान्य, क्योंकि खण्डी-मुण्डी रुट्दा य कामदेवा गणहरदेवा य चरमदेहधरा। आदि गौवों में गोत्व सामान्य रूप से रहता है तथा पूर्वोत्तर दुस्समसुसमे काले उप्पत्ती ताण बोद्धव्वा ।। 185॥ पर्यायों में रहनेवाले द्रव्य को ऊर्ध्वता सामान्य कहते हैं, जैसे
अर्थ - रुद्र, कामदेव, गणधरदेव और जो चरमशरीरी घड़े की पूर्वोत्तर पर्यायें हैं उन सबमें मिट्टी अनुगत रूप से
मनुष्य हैं, उनकी उत्पत्ति दुषमा-सुषमा काल में जाननी रहती है। 5॥
चाहिए। जिज्ञासा - क्या रुद्र हुण्डावसर्पिणी काल में ही होते
इ - जैनतत्त्वविद्या में पूज्य मुनि श्री प्रमाणसागर जी हैं, उत्सर्पिणी आदि अन्य कालों में नहीं होते ?
| ने पृ.54 पर ग्यारह रुद्रों का वर्णन करते हुए लिखा हैसमाधान - इस संबंध में आचार्यों के दो मत पाये | 'प्रत्येक काल चक्र में ग्यारह रुद्र उत्पन्न होते हैं। ये सभी जाते हैं -
अधर्मपूर्ण व्यापार में संलग्न होकर रौद्र कर्म किया करते हैं, __ 1. प्रथम मत तिलोयपण्णतिकार का है, जिनके अनुसार
इसलिए रुद्र कहलाते हैं। ---संयम और सम्यक्त्व से पतित
| हो जाने के कारण सभी रुद्र नरक गामी होते हैं।' रुद्रों की उत्पत्ति होना हुण्डावसर्पिणी काल का दोष है । कहा
26 सितम्बर 2006 जिनभाषित
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