Book Title: Jinabhashita 2006 09
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

View full book text
Previous | Next

Page 35
________________ भगवान विमलनाथ जम्बूद्वीपसंबंधी भरतक्षेत्र के काम्पिल्य नगर में भगवान् ऋषभदेव के वंशज कृतवर्मा राज राज्य करते थे। जयश्यामा उनकी महारानी थीं। माघ शुक्ल चतुर्थी के दिन रानी जयश्यामा ने सहस्रार स्वर्ग के इन्द्र को तीर्थंकरसुत के रूप में जन्म दिया। भगवान् वासुपूज्य के तीर्थ के बाद जब तीस सागर वर्ष बीत गये और पल्य के अन्तिम भाग में धर्म का विच्छेद हो गया, तब विमलनाथ भगवान् का जन्म हुआ था। उनकी आयु इसी अन्तराल में शामिल थी। उनकी आयु साठ लाख वर्ष की थी,शरीर साठ धनुष ऊँचा था और कान्ति सुवर्ण के समान थी। कुमार काल के पन्द्रह लाख वर्ष बीत जाने पर भगवान् विमलवाहन राज्याभिषेक को प्राप्त हुए। इस प्रकार छह ऋतुओं में उत्पन्न हुए भोगों का उपभोग करते हुए भगवान् के तीस लाख वर्ष बीत गये। एक दिन उन्होंने हेमन्त ऋतु में बर्फ की शोभा को तत्क्षण में विलीन होते देखा। जिससे उन्हें उसी समय संसार से वैराग्य हो गया। तदनन्तर सहेतुक वन में जाकर बेला का नियम लेकर माघशुक्ल चतुर्थी के दिन सायंकाल के समय एक हजार राजाओं के साथ दीक्षा धारण कर ली। पारणा के दिन उन्होंने नन्दनपुर नगर में प्रवेश किया। वहाँ सुवर्ण के समान कान्ति वाले राजा जयकुमार ने उन्हें आहारदान देकर पञ्चाश्चर्य प्राप्त किये। इस तरह तपश्चरण करते हुए जब तीन वर्ष बीत गये, तब वे महामुनि एक दिन अपने ही दीक्षावन में बेला का नियम लेकर जामुन वृक्ष के नीचे ध्यानारूढ़ हुए। फलस्वरूप माघशुक्ल षष्ठी के दिन सायंकाल के समय उन महामुनि विमलनाथ ने घातिया कर्मों का विनाश कर केवलज्ञान प्राप्त किया। भगवान के समवशरण की रचना हुई, जिसमें अड़सठ हजार मुनि, एक लाख तीन हजार आर्यिकायें,दो लाख श्रावक,चार लाख श्राविकायें,असंख्यात देव-देवियाँ और संख्यात तिर्यंच थे। इस तरह धर्म क्षेत्रों में विहार कर धर्मोपदेश देते हुए भगवान् सम्मेदशिखर पर जा विराजमान हुए। एक माह का योग निरोध कर उन्होंने प्रतिमायोग धारण किया। तदनन्तर आषाढ़ कृष्ण अष्टमी के दिन प्रातःकाल के समय आठ हजार छह सौ मुनियों के साथ अघातिया कर्म नाश कर । उन्होंने मोक्ष प्राप्त किया। भगवान अनन्तनाथ जम्बूद्वीपसंबंधी भरतक्षेत्र की अयोध्या नगरी में इक्ष्वाकुवंशी काश्यपगोत्री महाराज सिंहसेन राज्य करते थे। उनकी महारानी का नाम जयश्यामा था। उस महारानी ने ज्येष्ठ कृष्ण द्वादशी के दिन अच्युत स्वर्ग के पुष्पोत्तर विमानवासी इन्द्र को तीर्थंकरसुत के रूप में जन्म दिया। श्री विमलनाथ भगवान् के बाद नौ सागर और पौन पल्य का काल बीत जाने पर तथा अन्तिम समय धर्म का विच्छेद हो जाने पर भगवान् अनन्तनाथ का जन्म हुआ। उनकी आयु भी इसी अन्तराल में शामिल थी। उनकी आयु तीन लाख वर्ष की थी।शरीर पचास धनुष ऊँचा था तथा सुवर्ण के समान उनके शरीर की कान्ति थी। भगवान् अनन्तनाथ ने सात लाख पचास हजार वर्ष बीत जाने पर राजपद प्राप्त किया। राज्य करते हुए जब पन्द्रह लाख वर्ष बीत गये तब किसी एक दिन उल्कापात देखकर उन्हें यथार्थ ज्ञान हो गया। विरक्त चित्त भगवान् अपने अनन्तविजय नामक पुत्र के लिए राज्य प्रदान कर सहेतुक वन में गये। वहाँ बेला का नियम लेकर ज्येष्ठ कृष्ण द्वादशी के दिन सायंकाल के समय एक हजार राजाओं के साथ दीक्षित हो गये। वे अनन्तनाथ मुनिराज पारणा के दिन साकेतपुर नगर में गये। वहाँ सुवर्ण के समय कान्तिवाले विशाख नामक राजा ने उन्हें आहारदान देकर पञ्चाश्चर्य प्राप्त किये। इस प्रकार तपश्चरण करते हुए जब छद्मस्थ अवस्था के दो वर्ष बीत गये, तब उसी सहेतुक वन में अश्वत्थ (पीपल) वृक्ष के नीचे चैत्र कृष्ण अमावस्या के दिन सायंकाल के समय उन्होंने घातिया कर्म का क्षयकर केवलज्ञान प्राप्त किया। भगवान् के समवशरण की रचना हुई, जिसमें छयासठ हजार मुनि, एक लाख आठ हजार आर्यिकायें, दो लाख श्रावक, चार लाख श्राविकायें, असंख्यात देवदेवियाँ और संख्यात तिर्यंच थे। अनेक देशों में विहार कर धर्मोपदेश देते हुए भगवान् अनन्त जिन सम्मेदशिखर पर जा विराजमान हुए। वहाँ एक माह का योगनिरोध कर छह हजार एक सौ मुनियों के साथ प्रतिमायोग धारण किया तथा चैत्र कृष्ण अमावस्या के दिन रात्रि के प्रथम भाग में अघातिया कर्मों का क्षय कर मुक्ति पद प्राप्त किया। मुनिश्री समतासागरकृत 'शलाकापुरुष' से साभार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 33 34 35 36