Book Title: Jinabhashita 2006 09
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 27
________________ दि. जैन अतिशय क्षेत्र मोराझड़ी (अजमेर), राजस्थान गोत्र सोनी, क्षत्रिय कुल, सोरी कुल, देवी आयश | इस प्रसंग में यह उल्लेख करना आवश्यक होगा कि माता नगर, सोनपुर-राजा शिवसिंह जी ने संवत 101 में नगर | इससे पहले तीन बड़ी प्रतिमायें श्यामवर्ण की दि० जैन खंडेला में मुनि जिनसेनाचार्य द्वारा श्रावकव्रत ग्रहण किया। | पंचायत चौपानेरीवाले अपने यहाँ ले गये थे। इस ग्राम में तत्पश्चात् इनके वंशज सोनपुर छोड़कर संवत् 782 में | ऐसा बताया जाता है कि इस नगरी में जैन प्रतिमायें जमीन चित्तोडगढ़ आ गये और संवत् 1132 में राय सा० रतनसिंह | खोदने पर उपलब्ध हो सकती हैं। राजस्थान में यह नगरी जी ने मंदिर बनवाकर चन्द्रप्रभु स्वामी की प्रतिष्ठा कराई। । आज भी प्रसिद्ध है, हो सकता है कि किसी समय जैन भाई संवत् 1334 में अल्लाउद्दीन खिलजी द्वारा चित्तौड़गढ़ | बसते हों। यहाँ आज भी देवी के मन्दिर के कारण यह ग्राम पर कब्जा करने व जैनियों पर कठोर व्यवहार करने के | प्रसिद्ध एवं भीलवाड़ा जिला के अन्तर्गत है। कारण सोनी परिवार अलग-अलग स्थानों पर चला गया। श्री छोगालालजी सोनी ने गद्गद् होकर मोराझड़ी व लालचन्द्रजी टोंक गये, गोरधनजी सरवाड़ गये और रायमलजी | देरालूं के पंचों को बैलगाड़ी लेकर धनोप बुलवाया और दोनों मोराझडी आये। इन्होंने व इनके परिवार ने कुछ समय रामसर जगह से पंच धनोप आ गये। और अरांई में भी बिताया तथा वहाँ भी मंदिर बनाये। संवत् | दोनों ओर के पंचों ने निश्चय किया कि श्री शांतिनाथ 1678 में सरवाड़ में मंदिर बनवाया। स्वामी की प्रतिमा मोराझडी व श्री पार्श्वनाथ स्वामी की यह परिवार प्रतिष्ठित एवं धर्मात्मा प्रवृत्ति का था। प्रतिमा देरालूं ले जाई जावे। इस निर्णय के अनुसार दोनों ओर जीविकोपार्जन के साथ-साथ धर्म के प्रति भी इनकी अट के पंचों ने अपनी-अपनी बैलगाडी में भगवान् की प्रतिमायें श्रद्धा रही। अतः जहाँ-जहाँ भी यह परिवार जाकर बसा, | बैठाकर अपने-अपने गाँव ले जाने का प्रयास किया। वहीं पर जिनमंदिर निर्माण करने में किसी प्रकार की कसर उस समय यह आश्चर्य दिखने में आया कि दोनों नहीं रखी। बैलगाड़ियाँ वहाँ से चली नहीं। बड़ा प्रयास, इसके लिये - संवत् 170 में श्री देवकरणजी सोनी ने मंदिर बनवाकर | किया गया। निराश होकर बैठ गये। दोनों ओर से पंचों ने यह बैशाख सुदी 3 को महाराज अनंतकीर्तिजी से प्रतिष्ठा कराई। | तय किया कि जिधर बैलगाड़ियाँ जाना चाहें जाने देवें। मोराझड़ी में केवल यही एक परिवार वैश्य जाति का कुछ देर बाद बैलगाड़ियाँ धनोप से प्रस्थान करने रहा है, फिर भी इन्होंने अपना व्यवसाय प्रतिष्ठा के साथ | लगीं। उस समय देखने में आया कि देराह्वाली बैलगाड़ी किया और वहाँ के निवासियों से सम्मान व प्रतिष्ठा पाते रहे। मोराझड़ी की ओर और मोराझड़ी की बैलगाड़ी देरादूँ की मोराझड़ी की जनता आदर की दृष्टि से देखती रही यही | ओर चलने लगी। इस प्रकार दोनों गाडियाँ मोराझड़ी व देरादूँ कारण था कि वहाँ के नगर सेठ माने जाने लगे। | पहुँच गईं। एक बार सेठ छोगालालजी सा. को बाईजी को लेने मोराझड़ी में भगवान पार्श्वनाथ स्वामी की प्रतिमा आने के लिये धनोप जाने का अवसर मिला। बताया जाता है कि | पर समस्त गाँव को असीम हर्ष हुआ। वे धनोप की नदी में स्नान करने गये। वे नदी के किनारे | श्री छोगालालजी सोनी ने भगवान् पार्श्वनाथ स्वामी शौचादि से निवृत्त हो रहे थे कि उन्हें नदी की मिट्टी में सफेद | की प्रतिमा को चँवरी के पास विराजमान किया। प्रक्षालपत्थर दिखलाई दिया। उत्कंठा बढी तो और मिट्टी हटाने की | पजन आरम्भ हो गया तथा चौखले में इस प्रतिमा जी के कोशिश की। मिट्टी हटाने पर दो पत्थर दिखलाई दिये। | आगमन पर हर्ष छा गया, धीरे-धीरे इस स्थान का महत्त्व उन्होंने उन दोनों पत्थरों के खड्गासन प्रतिमा के रूप में | बढ़ने लगा। यह प्रतिमा विक्रमसंवत् 1941 में मोराझड़ी दर्शन किये। आई। इससे उनकी विशेष श्रद्धा बढ़ती गई और अन्त में 'मोराझड़ी पार्श्वनाथ अतिशय क्षेत्र परिचय' धनोप दरबार से प्रार्थना की कि ये प्रतिमायें हमें दे देवें। नामक पुस्तिका से उद्धृत ठाकुर सा० ने इसके लिये सहमति दे दी। सितम्बर 2006 जिनभाषित 25 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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