Book Title: Jinabhashita 2006 09
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 13
________________ लक्षणवाले निज परमात्मद्रव्य के सम्यक् श्रद्धान, सम्यज्ञान | यहाँ उल्लेखनीय बात यह है कि धर्मपरिणत आत्मा और सम्यक् अनुचरण रूप पर्याय से परिणमन करता है। | ही शुभोपयोगी होता है, अतः उसे अधर्मात्मा तो नहीं कह इस परिणमन को आगम की भाषा में औपशमिक, सकते। आचार्य अमृतचन्द्रजी ने इसकी उत्थानिका में क्षायोपशमिक या क्षायिक भाव कहते हैं और अध्यात्म की | शुद्धपरिणाम की तरह शुभपरिणाम का सम्बन्ध चारित्रपरिणाम भाषा में शुद्धात्मा के अभिमुख परिणाम या शुद्धोपयोग आदि | के साथ बतलाया है - "अथ चारित्रपरिणाम सम्पर्ककहते हैं। सम्भववतोः शुद्धशुभपरिणामयोः।" किन्तु शुभोपयोगी के इस तरह आगम और अध्यात्म में सम्यग्दर्शन की | चारित्र को कथंचिद् विरुद्ध कार्यकारी कहा है। अतः जैसे उत्पत्ति का क्रमादि भिन्न नहीं है। जिसे करणानुयोग, | शुद्धोपयोग की तुलना में शुभोपयोग हेय है उसी प्रकार चरणानुयोग में औपशमिक आदि नामों से कहते हैं, उसे ही | अशुभपयोग की तुलना में शुभोपयोग हेय नहीं है। अतः उसे अध्यात्म में शुद्धोपयोग शब्द से कहते हैं। अतः अध्यात्म में | अशुभोपयोग की तरह सर्वथा हेय कहना उचित नहीं है और अविरत सम्यग्दृष्टि को भी शुद्धोपयोगी कहा है। शुद्धोपयोग | न सर्वथा उपादेय कहना ही उचित है। क्योंकि शुभोपयोग के शब्द का भी एक ही अर्थ नहीं है। शुद्ध उपयोग तो यथार्थ में | रहते हए निर्वाण लाभ सम्भव नहीं है। ऊपर के गुणास्थानों में होता है। किन्तु शुद्ध के लिये उपयोग प्रवचनसार में ही गाथा 245 में श्रमणों के दो भेद और शुद्ध का उपयोग नीचे के गुणस्थानों में भी होता है। इसी | किये हैं - शुद्धोपयोगी और शुभोपयोगी। शुद्धोपयोगी अनास्रव से शुद्धात्मा के प्रति अभिमुख परिणाम को भी शुद्धोपयोग होते हैं और शुभोपयोगी सास्रव होते हैं। कहा है। उसके बिना आगे के गुणस्थानों में शुद्ध उपयोग होना इसकी टीका में अमृतचन्द्रजी ने यह प्रश्न उठाया है संभव नहीं है। कि जो मुनिपद धारण करके भी कषाय का लेश जीवित किसी भी अनुयोग में सम्यग्दर्शन का महत्त्व निर्विवाद होने से शुद्धोपयोग की भूमिका पर चढ़ने में असमर्थ हैं, वे है। सम्यग्दर्शन के बिना न ज्ञान सम्यक् होता है और न क्या श्रमण नहीं हो सकते ? उत्तर में प्रवचनसार की प्रारम्भ चारित्र । सम्यग्दर्शन के अभाव में दिगम्बरमुनि भी मुनि नहीं की गाथा 11 का प्रमाण देकर अमृतचन्द्रजी ने जोर देकर है, यह आगम का विधान है। सम्यग्दर्शन के होने पर ही कहा है कि शुभोपयोग का धर्म के साथ एकार्थसमवाय है अनन्तसंसार सान्त होता है। छहढाला में जो कहा है - अर्थात् धर्म और शुभोपयोग एक साथ रह सकते हैं, इसलिये मुनिव्रतधार अनन्तवार ग्रैवेयक उपजायो। धर्म का सद्भाव होने से श्रमण शुभोपयोगी भी होते हैं, किन्तु पेनिज आत्मज्ञान बिना सुखलेश न पायो॥ वे शुद्धोपयोगी श्रमणों के तुल्य नहीं होते। यह सम्यग्दर्शन विहीन मुनिव्रत के लिये ही कहा है, ___ आगे गाथा 254 की टीका में अमृतचन्द्रजी ने कहा है क्योंकि द्रव्यलिंगी मिथ्यादृष्टि भी नौग्रैवेयक तक जा सकता कि श्रमणों के शुभोपयोग की मुख्यता नहीं रहती, गौणता है। अतः सम्यग्दर्शनविहीन चारित्र से भी स्वर्गसुख मिल रहती है, क्योंकि वे महाव्रती होते हैं और महाव्रत या समस्त सकता है, किन्तु मोक्षलाभ नहीं हो सकता। जो सांसारिक सुख की कामना से धर्माचरण करते हैं, वे धर्मात्मा कहलाने विरति शुद्धात्मा की प्रकाशक है, किन्तु गृहस्थों के तो के पात्र नहीं हैं। किन्तु जो मोक्ष सुख की कामना से धर्म समस्तविरति नहीं होती, अतः उनके शुद्धात्मा के प्रकाशन का अभाव होने से तथा कषाय का सद्भाव होने से शुभोपयोग करते हैं, वे सच्चे धर्मात्मा होते हैं और यथार्थ धर्म वही है | की मुख्यता है। तथा जैसे स्फटिक के सम्पर्क से सूर्य की जिससे कर्म कटते हैं। किरणों का संयोग पाकर ईंधन जल उठता है, उसी प्रकार शुभोपयोग का धर्म के साथ सम्बन्ध तब प्रश्न होता है कि शुभोपयोग धर्म है या नहीं है ? गृहस्थ को राग के संयोग से शुद्धात्मा का अनुभव होने से वह शुभोपयोग क्रम से परमनिर्वाण सुख का कारण होने से मुख्य और उसे करना चाहिये या नहीं ? है। प्रवचनसार गाथा 11 में कहा है जब यह धर्मपरिणत इस प्रकार आचार्य अमृतचन्द्र जी ने श्रावक के स्वभाव आत्मा शुद्धोपयोग रूप परिणमन करता है, तब निर्वाण सुख पाता है और यदि शुभोपयोगरूप परिणमन करता है, शुभोपयोग की मुख्यता स्वीकार की है। सिद्धान्त तो यह तब स्वर्गसुख प्राप्त करता है अर्थात् उसके पुण्यबन्ध होता स्वीकार करता ही है। किन्तु वह शुभोपयोग शुद्धोपयोग सापेक्ष होना चाहिये। निज शुद्धात्मा ही उपादेय है इस प्रकार की - सितम्बर 2006 जिनभाषित 11 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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