Book Title: Jinabhashita 2006 09
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 11
________________ रसिया शेष जिनवाणी को ही हेय मान बैठता है। उसकी दृष्टि में यदि उपादेय है, तो केवल समयसार है, शेष सब हेय हैं। न उसे चरणानुयोग रुचिकर है और न करणानुयोग रुचिकर है । t ऐसे लोगों के लिये ही अमृतचंद्र जी ने पञ्चास्तिकाय की अपनी टीका के अन्त में एक गाथा उद्धृत की है - णिच्चयमालंबता णिच्चयदो णिच्चयं अजाणता । णासंति चरणकरणं बाहिरचरणालसा केई ॥ अर्थात् निश्चय का आलम्बन लेनेवाले, किन्तु निश्चय से निश्चय को न जानने वाले कुछ जीव बाह्य आचरण में आलसी होकर चरणरूप परिणाम का विनाश करते हैं । इसी प्रकार जो प्रारम्भ से ही व्यवहारासक्त हैं और उसे ही एक मात्र मोक्ष का कारण मानकर निश्चय से इसलिये विरक्त हैं कि पूर्व में उन्होंने कभी निश्चय की चर्चा नहीं सुनी। अतः प्रायः ऐसे लोग, जिनमें विद्वान् और त्यागी व्रती भी हैं, समयसार की चर्चा से या आत्मा की चर्चा से भड़क उठते हैं। उसे वे सुनना भी पसन्द नहीं करते। कोई-कोई तो समयसार के रचयिता होने के कारण आचार्य कुन्दकुन्द से भी विमुख जैसे हो गये हैं और क्रियाकाण्ड को ही मोक्ष का मार्ग * मानकर उसी में आसक्त रहते हैं। ऐसे व्यवहारवादियों को भी लक्ष्य करके अमृतचंद्र जी ने पंचास्तिकाय की अपनी टीका में एक गाथा उद्धृत की है चरणकरणप्पहाणा ससमयपरमत्थमुक्कवावाहा । चरणकरणस्स सारं णिच्छयसुद्धं ण जाणंति ॥ अर्थात् जो चारित्र - परिणाम प्रधान हैं अर्थात् शुद्ध आत्मा के सम्यक् श्रद्धान, ज्ञान, अनुष्ठान रूप निश्चयमोक्षमार्ग से उदासीन रहकर या उसकी उपेक्षा करके केवल शुभानुष्ठानरूप व्यवहारमार्ग को ही मोक्षमार्ग मानते हैं और स्व- समयरूप परमार्थ में व्यापाररहित हैं, वे चारित्र - परिणाम का सार जो निश्चय शुद्ध आत्मा है, उसे नहीं जानते । इसीसे समयसार गाथा 12 की टीका में अमृतचन्द्र जी ने एक गाथा उद्धृत की है - जड़ जिणमयं पवज्जह ता मा ववहारणिच्छए मुयह। एक्केण विणा छिज्जइतित्थं, अण्णेण पुण तच्चं ॥ , अर्थात् यदि जैनमत का प्रवर्तन चाहते हो, तो व्यवहार और निश्चय इन दोनों को मत छोड़ो, क्योंकि एक व्यवहारनय के बिना तो तीर्थ का नाश हो जायेगा और दूसरे निश्चय के बिना तत्त्व (वस्तुस्वरूप) का विनाश हो जायेगा । इसके पश्चात् ही अमृतचन्द्र जी ने नीचे लिखा स्वर्णकलश कहा है Jain Education International - उभयनयविरोधध्वंसिनि स्यात्पदाङ्के जिन वचसि रमन्ते ये स्वयं वान्तमोहाः । सपदि समयसारं ते परं ज्योतिरुच्चै - रनवमनयपक्षाक्षुण्णमीक्षन्त एव ॥ निश्चय और व्यवहार में परस्पर विरोध है, क्योंकि एक शुद्ध द्रव्य का निरूपक है और दूसरा अशुद्ध द्रव्य का । उस विरोध को दूर करनेवाले भगवान् जिनेन्द्र के स्यात्पद से अंकित वचन हैं अर्थात् स्याद्वादनय गर्भित द्वादशांग वाणी है। जो उसमें रमण करते हैं, प्रीतिपूर्वक उसका अभ्यास करते हैं, वे स्वयं मिथ्यात्व का वमन करके परमस्वरूप, अतिशय प्रकाशमान उस शुद्ध आत्मा का अवलोकन करते हैं, जो नया नहीं है तथा एकान्तनयके पक्ष से अखण्डित है । सिद्धान्त और अध्यात्म दोनों का ही चरम लक्ष्य यही है, भिन्न नहीं है। किन्तु दोनों की कथन शैली में अन्तर है। जहाँ तक हम जान सके, सिद्धान्त और अध्यात्म के इस अन्तर को ब्रह्मदेवजी ने अपनी द्रव्यसंग्रहटीका में स्पष्ट किया है । गाथा 13 में संसारी जीव के अशुद्धनय से चौदह मार्गणा और गुणस्थानों की अपेक्षा चौदह भेद कहे हैं। और शुद्धनय से सब जीवों को शुद्ध कहा है। इसकी टीका में कहा है कि 'गुणजीवापज्जत्ती' आदि गाथा में जो बीस प्ररूपणा कही हैं, वह धवल, जयधवल और महाधवल नामक तीन सिद्धान्त ग्रन्थों के बीजपदभूत है। और गाथा के चतुर्थ पाद में 'सव्वे सुद्धा हु सुद्धणया' कहा है, जो कि शुद्ध आत्मतत्त्व का प्रकाशक है, वह पञ्चास्तिकाय, प्रवचनसार, समयसार नामक प्राभृतों का बीजपदभूत है । इसी में आगे कहा है कि अध्यात्मग्रन्थ का बीजपदभूत, जो शुद्ध आत्मस्वरूप कहा है, वही उपादेय है । इस तरह सिद्धान्त संसारी जीव की वर्तमान दशा का चित्रण करता है, जो शुद्ध जीव का स्वरूप न होने से व्यवहारय का विषय है तथा हेय है । अध्यात्म शुद्ध आत्मतत्त्व का प्रकाशक है, जो निश्चयनय का विषय है तथा उपादेय है । हेय और उपादेय जो संसारी जीव आत्महित करना चाहता है, उसे सबसे प्रथम हेय और उपादेय का बोध होना आवश्यक है । यदि कदाचित् उसने हेय को उपादेय और उपादेय को हेय मान लिया, तो वह आत्महित नहीं कर सकता । इसीसे आगम में तत्त्वार्थ के श्रद्धान को सम्यक्त्व कहा है। अतः मुमुक्षु को तत्त्वार्थ का विचार करके उसकी श्रद्धा करनी चाहिये । इस विषय में आगम या सिद्धान्त और अध्यात्म में भेद नहीं है । सितम्बर 2006 जिनभाषित 9 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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