Book Title: Jinabhashita 2006 09
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

View full book text
Previous | Next

Page 9
________________ अध्यात्म और सिद्धान्त स्व. सिद्धान्ताचार्य पं. कैलाशचन्द्र जी शास्त्री प्रारम्भ में जिनवाणी बारह अंगों और चौदह पूर्वो में | करने में समर्थ होता है। विभक्त थी। अंगों और पूर्वो का लोप हो जाने पर आचार्यों ने | 3. तीसरे अनुयोग का नाम चरणानुयोग है। इसमें जो ग्रन्थ रचना की है, वह उत्तरकाल में चार अनुयोगों में | गृहस्थों और मुनियों के चारित्र का, उनकी उत्पत्ति, वृद्धि विभक्त हुई। उनका नाम प्रथमानुयोग, करणानुयोग, | और रक्षा के उपायों का कथन रहता है। इस अनुयोग का चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग है। जिसमें एक पुरुष से सम्बद्ध | चलन सदा विशेष रहा है। इसी के कारण आज भी जैनीकथा होती है उसे चरित कहते हैं और जिसमें त्रेसठ | जैनी कहे जाते हैं। शलाकपुरुषों के जीवन से सम्बद्ध कथा होती है उसे पुराण | 4. अन्तिम चतुर्थ अनुयोग द्रव्यानुयोग है। इसमें जीवकहते हैं। ये चरित और पुराण दोनों प्रथमानुयोग कहे जाते | अजीव, पुण्य-पाप, बन्ध-मोक्ष आदि पदार्थों और तत्त्वों का हैं। आचार्य समन्तभद्र ने इस अनुयोग को पुण्यवर्धक तथा | कथन रहता है। प्रसिद्ध मोक्षशास्त्र (तत्त्वार्थसूत्र) तथा समयसार बोधि और समाधि का निधान कहा है। अर्थात् जहाँ एक | इसी अनुयोग में गर्भित हैं। ओर इसमें उपयोग लगाने से पुण्यबन्ध होता है, वहीं दूसरी | दिगम्बरपरम्परा में जो साहित्य आज उपलब्ध हैं, ओर रत्नत्रय की तथा उत्तम ध्यान की प्राप्ति भी इससे होती | उसमें सबसे प्राचीन कषायपाहुड़ और षटखण्डागम हैं। है। इस अनुयोग को प्रथम स्थान दिया गया है तथा उसे नाम | कषायपाहुड़ की रचना आचार्य गुणधर ने और षट्खण्डागम भी प्रथमानुयोग दिया है। जैसे सबसे पहली कक्षा और परीक्षा | की रचना भूतबली-पुष्पदन्त ने की थी। दोनों ही सिद्धान्तग्रन्थ ; क्योंकि प्राथमिकों के लिये, जो उसमें | पूर्यों से सम्बद्ध हैं तथा उनका मुख्य प्रतिपाद्य विषय कर्मसिद्धान्त रना चाहते हैं, वही उपयोगी है, उसी तरह जिनवाणी | है। भूतबली-पुष्पदन्त के गुरु आचार्य धरसेन महाकर्म प्रकृति में प्रवेश करनेवाले प्राथमिकों के लिये प्रथमानुयोग का स्वाध्याय | प्राकृति के ज्ञाता थे, वही उन्होंने भूतबली-पुष्पदन्त को पढ़ाया उपयोगी होता है। कथाओं में रुचि होने से पाठक का मन | था और उसी के आधार पर भूतबली-पुष्पदन्त ने षट्खण्डागम उसमें रम जाता है और फिर धीरे-धीरे वह उसमें वर्णित | की रचना की थी। इसी प्रकार कषायपाहुड़ पर चूर्णिसूत्रों के रहस्य को जानने के लिये उत्सुक हो उठता है। स्व. बाबा | रचयिता आचार्य यतिवृषभ भी आर्य नागहस्ति और आर्यमंक्षु भागीरथजी वर्णी कहा करते थे कि पद्मपुराण की कथा सुनकर | के शिष्य थे। और नागहस्ति तथा आर्यमंक्षु भी मैंने पढ़ना सीखा और मैं जैनधर्म स्वीकार करके वर्णी बन | प्राभृत के ज्ञाता थे। श्रुतावतारकर्ता आचार्य इन्द्रनन्दि के अनुसार गया। अतः इस अनुयोग की महत्ता किसी भी अन्य अनयोग आचार्य पद्यनन्दि ने कुण्डकुन्दपुर में गुरुपरिपाटी से दोनों से कम नहीं है। सिद्धान्तग्रन्थों को जाना तथा षट्खण्डागम के आद्य तीन खण्डों 2. दूसरे अनुयोग का नाम करणानुयोग है। करण का | | पर परिकर्म नामक ग्रन्थ रचा। यथा - अर्थ परिणाम भी है और गणित के सूत्रों को भी कहते हैं। एवं द्विविधो द्रव्यभावपुस्तकगतः समागच्छन्। इसीसे श्वेताम्बरपरम्परा में इसे गणितानुयोग भी कहते हैं। गुरुपरिपाट्यां ज्ञातः सिद्धान्तः कुण्डाकुन्दपुरे।160॥ इसमें लोक और अलोक का विभाग, उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी श्री पद्यनन्दिमुनिना सोऽपि द्वादश सहस्त्रपरिमाणः । कालों का विभाग, तथा गति, इन्द्रिय आदि मार्गणाओं का ग्रन्थ परिकर्मकर्ता षट्खण्डाद्यत्रिखण्डस्य ।।161।। कथन होता है। एक तरह से यह अनुयोग समस्त जिनशासन ___ आचार्य कुन्दकुन्द ने परिकर्म नामक ग्रन्थ रचा था, का प्राणभूत है। इसके अध्ययन से संसार में भटकते हुए इस पर हमने कुन्दकुन्द-प्राभृत-संग्रह की प्रस्तावना में विस्तार संसारी जीव को अपनी वर्तमान दशा का, उसके कारणों का से विचार किया है और धवला टीका में प्राप्त उद्धरणों के तथा उससे निकलने के मार्ग का सम्यक्बोध होता है। आधार पर इन्द्रनन्दि के उक्त कथन का समर्थन किया है। करणानुयोग जीव की आन्तरिक दशा को तोलने के लिये कुन्दकुन्द-प्राभृत-संग्रह का संकलन इसी दृष्टि के तुला जैसा है। करणानुयोग के अनुसार जो सम्यग्दृष्टि होता | किया गया है कि पाठकों को यह ज्ञात हो जाये कि कुन्दकुन्द है, वही सच्चा सम्यग्दृष्टि होता है, वही संसारसागर को पार ने किस-किस विषय पर क्या कहा है। क्योंकि परम्परा से सितम्बर 2006 जिनभाषित 7 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36