Book Title: Jinabhashita 2006 09 Author(s): Ratanchand Jain Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra View full book textPage 8
________________ आँखों से आँसू गिर जाते, इससे मालूम हो जाता था कि | ही तो गन्दा हुआ है, इससे क्या फर्क पड़ता है!' ऐसा सोचकर पहचान लिया, इतना ही नहीं अपनी भावनाएँ भी व्यक्त कर | वह आगे बढ जाता। एक दिन वह उसी रास्ते से होकर दी हैं। उनको बोलने में बहुत तकलीफ होती थी, गले में | निकला, पर ऊपर से कचरा नहीं आया। उस आदमी ने बहुत अधिक कफ़ संचित हो गया था- ऐसा बताते हैं। ऊपर देखा- 'क्या बात है! आज कचरा क्यों नहीं फेंका डॉक्टर ने कहा कि अब ठीक होने के कोई चांसेज (उम्मीद) | गया!' ऊपर कोई नहीं था। दूसरे दिन भी कचरा नहीं फेंका नहीं हैं, बस अब अपने भगवान को याद करो। तब पहली | गया। उस आदमी ने आस-पासवालों से पूछताछ की- 'वह बार उनको लगा कि जीवन में भगवान की कितनी जरूरत | कचरा फेंकनेवाला व्यक्ति क्या कहीं बाहर गया है?' देखिये, है! उन्होंने णमोकार मन्त्र पढा। अपने जीवन के अन्तिम | यदि इस जगह हम और आप होते, तो शुरू में ही कचरा न संस्मरण में लिखा उन्होंने कि 'मैं णमोकार मन्त्र पढता जाता | फेंका जाय, इसका इन्तजाम कर देते। लेकिन उस आदमी था और रोता जाता था। आधा घण्टे तक णमोकार मन्त्र | की निर्मला देखियेगा कि कचरा गिरने पर भी उस व्यक्ति के पढ़ते-पढ़ते खूब जी भर के रो लिया। जब डॉक्टर दूसरी | प्रति मन मलिन नहीं किया. परिणाम नहीं बिगाडे. बल्कि बार उनका चैक-अप (जाँच) करने आया तो उन्होंने पूछा- | पछ रहे हैं कि कहीं बाहर गये हैं क्या?' उनके दरवाजे को 'मिस्टर जैन! आपने अभी थोड़ी देर पहले कौनसी मेडिसिन धक्का दिया, अटका हुआ था- खुल गया। वह सीढ़ी चढ़कर (दवाई) खाई है?' नर्सेज से पूछा कि 'इनको कौनसी ऊपर पहुँचा। देखा- जो व्यक्ति रोज कचरा फेंकता था, वह मेडिसिन (दवाई) दी गई है?' बीमार पड़ा है, बिस्तर पर है। वह वहीं बैठ गया और उस नर्सज ने कहा कि अभी कोई दवा नहीं दी गई। हा, | बीमार व्यक्ति के स्वास्थ्य लाभ के लिए प्रार्थना करने लगा। आपने कहा था- अपने ईश्वर को याद करो, इन्होंने वही | वह बीमार व्यक्ति चपचाप देखता रहा कि यह वही व्यक्ति है किया है अभी।' जिस पर मैं रोज कचरा फेंकता था और यही व्यक्ति मेरे उन्होंने अपने संस्मरण में लिखा कि 'मुझे बार-बार | स्वास्थ्य-लाभ के लिए प्रार्थना कर रहा है। उस बीमार व्यक्ति . यही लगता था कि मैंने जीवनभर ऐसे निर्मल परिणाम के | (कचरा फेंकनेवाले) का मन भीग गया। कल तक जिस पर साथ भगवान् को याद क्यों नहीं किया। अब मृत्यु के निकट | कचरा फेंकता था, आज उसी के चरणों में आंसू बहाये। ये समय में अपने भगवान् को याद कर रहा हूँ तो मुझे अपने पूरे | क्या चीज है? ये मन की निर्मलता है, जो दूसरे के मन को जीवन पर रोना आया और मन भीग गया।' ये हैं मन का | भी भिगो देती है। स्वयं का मन तो भीगता ही है, दूसरे का भीगना, ये भी निर्मलता लाता है। मन भी हमारे मन की निर्मलता से प्रभावित होता है। इसी एक और घटना है जिससे मालूम पड़ेगा कि हमारा | को कहते हैं मन शद्ध हो गया। क्या मन की ऐसी निर्मलता मन कैसे भीगता है? जितना भीगता है उतना निर्मल होता हमें नहीं पानी चाहिए ? जाता है, जितना निर्मल होता है उतना भीगता जाता है। आज विनोबा हमेशा कहा करते थे कि मैं अपने कमरे को ऐसे अवसर कम आते हैं। अगर किसी की आँख भर जाये अपने हाथ से झाड़ता हूँ और झाड़कर वह कपड़ा (झाड़न) तो वह कमजोर माना जाता है। आज कोई रोने लगे तो रोज इसलिए फेंकता हूँ, ताकि मुझे ध्यान रहे कि जैसे मैं गन्दे बिल्कुल बुद्ध माना जाये। आज अगर मन भीग जाये तो हम कमरे में बैठना पसन्द नहीं करता. वैसे ही मेरे भगवान मेरे बहुत आउट ऑफ डेट (बहुत पुराना, असामायिक) माने मन की गन्दगी रहने पर मेरे भीतर बैठना क्यों पसन्द करेंगे? जायें। बहुत कठोर हो गये हैं हम, हमारी निर्मलता हमारे | हम भगवान् को तो अपने अन्दर बैठाना चाहते हैं, लेकिन कठोर मन से गायब हो गई। जबकि हमारा मन इतना निर्मल मन को मलिन ही बनाये रखना चाहते हैं। क्या ऐसे में होना चाहिए था कि दूसरों के दुःख को, संसार के दुःखों को भगवान् विराजेंगे! शुद्ध मन में ही विराजते हैं भगवान । वे देखकर द्रवित हो जाये, उसमें डूब जाये। कहीं और से नहीं आते, वे तो अन्दर ही विराजते हैं। जितना एक आदमी रोज एक निश्चित रास्ते से निकलता मन शुद्ध हो जाता है, उतने हमारे भीतर प्रकट हो जाते हैं। था। उस पर एक दूसरा आदमी रोज ऊपर से कचरा डाल हमारा उतना परमात्मस्वरूप प्रकट हो जाता है। जितनी देता। बड़ी मुश्किल, रोज का काम हो गया यह। फिर भी मलिनता हटती जाती है उतनी निर्मलता-स्वच्छता आती वह आदमी कचरा डालनेवाले को कुछ नहीं कहता, सोचता जाती है। कि 'कचरा शरीर पर गिरा है, मन को क्यों गन्दा करें? शरीर 'गुरुवाणी'(पृ. 45-50 ) से साभार 6 सितम्बर 2006 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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