Book Title: Jinabhashita 2006 09
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 16
________________ ही मोक्षमार्ग का अनेकांत का सहारा लेकर व्यवहार-निश्चय, | स्थूल सदाचरण के रूप में सम्यक्त्वाचरण भी प्रकट होता सराग-वीतराग, भेद-अभेद, कारण-कार्य के रूप में साधार | है। अप्रत्याख्यानवरण एवं प्रत्याख्यानवरण कषायों के वर्णन किया गया है। क्षयोपशम से क्रमशः पाँच पापों के एकदेश-त्यागरूप कुछ स्वाध्यायशील सज्जन जिनागम के उपर्युक्त | संयमासंयम एवं सम्पूर्ण पापों के सर्वथा त्यागरूप महाव्रत, अनेकांतात्मक उल्लेखों की अनदेखी करते हुए अपनी एकांत | गुप्ति, समिति आदि प्रकट होते हैं, जिन्हें व्यवहारसम्यक्चारित्र धारणाओं को पुष्ट करते हुए निम्न धारणाएँ रखते हैं- कहा जाता है। व्यवहार रत्नत्रय की चरमदशा में वीतराग 1. निश्चयसम्यग्दर्शन पहले होता है. व्यवहार | अवस्था में, निश्चय रत्नत्रय प्रकट होता है जो शीघ्र मोक्ष को सम्यग्दर्शन बाद में होता है। प्राप्त करा देता है। 2. व्यवहारसम्यग्दर्शन वास्तव में सम्यग्दर्शन ही नहीं सर्वार्थसिद्धिकार ने सम्यक्त्व के दो भेदों के बारे में लिखा है- "तद् द्विविधं सरागवीतरागविषयभेदात्।" 3. शुभराग रूप देशव्रत अथवा महाव्रत धर्म नहीं हैं।। "प्रशमसंवेगानुकम्पास्तिक्याघभिव्यक्तिलक्षणं प्रथमम्। इनको धर्म मानना मिथ्यात्व है। आत्मविशुद्धिमात्रमितरत्॥" व्यवहारसम्यक्त्व को निश्चय आगम में व्यवहार-निश्चय सम्यग्दर्शनज्ञानचरित्र का | का साधक बताते हुए द्रव्य संग्रह गाथा 41 की टीका में विश्लेषण किया गया है। निश्चयरत्नत्रय का छहढालाकार ने | लिखा है- "व्यवहारसम्यक्त्वेन निश्चयसम्यक्त्वं साध्यत इति निम्न प्रकार वर्णन किया। साध्यसाधकभाव ज्ञापनार्थसमिति॥" पंचास्तिकाय गाथा 107 पर द्रव्यन” भिन्न आप में रुचि सम्यक्त्व भला है। की ता.वृ. टीका में लिखा है इदं तु नवपदार्थविषयभूतं आप रूप को जानपनों सो सम्यग्ज्ञान कला है।। व्यवहारसम्यक्त्वं किं विशिष्ट म्। शुद्धजीवास्तिकाय रुचिरूपस्य निश्चयसम्यक्त्वस्य छद्मस्थावस्थात्मविषयआप रूप में लीन रहे थिर सम्यकचरित्र सोई। स्वसंवेदनज्ञानस्य परम्परया बीजम्॥" अब व्यवहार मोक्ष मग सुनिए हेतु नियत को होई॥| स् उक्त विवेचन से निम्न बिंदु सिद्ध होते है - पर द्रव्यों से भिन्न अपने आत्मतत्व के प्रति रुचि 1. व्यवहार सम्यग्दर्शन साधन होने से पहले होता होना निश्चय सम्यग्दर्शन है। अपने आत्मा को जानना निश्चय | है और उसके दारा सिद्ध होने वाले साध्य के रूप में निश्चय सम्यक चारित्र है। उक्त निश्चय रत्नत्रय की प्राप्ति स्वयं की सम्यग्दर्शन बाद में होता है। आत्मा में पूर्ण वीतराग दशा प्राप्त नहीं होने तक नहीं हो | 2. साधन के बिना साध्य नहीं होता, अतः सकती। कुंदकुंद के आध्यात्मिक ग्रंथों के द्वितीय टीकाकार व्यवहारसम्यग्दर्शन के बिना निश्चयसम्यग्दर्शन नहीं होता आचार्य श्री जयसेन स्वामी ने कहा है कि वीतराग अथवा | है। निश्चय-सम्यग्दर्शन प्राप्त करने के लिए पहले व्यवहार निश्चय सम्यग्दर्शन वीतराग चारित्र का अविनाभावी है। अर्थात् सम्यग्दर्शन की साधना की जानी चाहिए। वीतरागचारित्र के धारक मुनि महाराज को ही वीतराग 3. व्यवहार सम्यग्दर्शन भी सम्यग्दर्शन ही का (निश्चय) सम्यग्दर्शन होता है। आगे छहढालाकार ने || एक भेद है। "सदृष्टिज्ञानवृत्तानि धर्मम्" आ. समंतभद्र के व्यवहारसम्यक्त्व का, जो निश्चयसम्यक्त्व का कारण है, उक्त वाक्य के अनसार व्यवहार-सम्यग्दर्शनजानचारित्र भी स्वरूप बताते हुए बताया है कि सात तत्त्वों के समीचीन धर्म हैं। इनको धर्म नहीं मानना मिथ्यात्व है। स्वरूप की श्रद्धा व्यवहारसम्यग्दर्शन है। व्यवहारसम्यग्दर्शन मदनगंज-किशनगढ़ (राजस्थान) के साथ अनंतानुबंधी कषाय के अनुदय के कारण होनेवाले जिस जीवन के लिए प्राणी महान् पाप करके धन उपार्जित किया करता है, वह जीवन शरदऋतु के मेघ के समान शीघ्र नष्ट हो जाता है। कदाचित् बालू में पानी और आकाशपुरी में महापुरुष भले ही प्राप्त हो जावें, परन्तु इस असार संसार में सुख कभी प्राप्त नहीं हो सकता। 'वीरदेशना' से साभार 14 सितम्बर 2006 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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