Book Title: Jinabhashita 2006 09
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

View full book text
Previous | Next

Page 19
________________ भावाव्यक्ति है। 8. छत्रत्रय - आपके अपूर्व तेजपुंज से निस्तेज हुआ 1. अशोक वृक्ष - भगवान् के धर्मोपदेश के समय | चन्द्रमा, तीन छत्र का वेष धारणकर सेवा में उपस्थित है। मनुष्य की तो क्या, वनस्पति और वृक्ष भी शोक रहित - | छत्रों पर लगे मोती चन्द्रमा के परिकर तारागण रूप हैं। अशोक बन जाते हैं, जैसे सूर्योदय से कमल एवं पँवार आदि आचार्य कुमुद्चन्द्र कहते हैं कि पार्श्व प्रभु की यह वनस्पतियां संकोचरूप निद्रा को छोड़कर विकसित हो जाती | स्तुति नीरस व शुष्क हृदय से न करें, क्योंकि बिना तन्मय | हुए स्तुति करने का आनंद नहीं मिलेगा। भगवच्चरणों में 2. पुष्पवृष्टि - देवों द्वारा की जाने वाली पुष्पों की बुद्धि को स्थिर करें तथा मन की चंचलता को रोककर प्रेम वर्षा से पांखुरी ऊपर और उनके डंठल नीचे हो जाते हैं, से छलकते हृदय द्वारा जब इसका गान करते हैं तो अंगप्रत्यंग प्रतीक हैं कि भव्य जनों के कर्मबन्धन नीचे हो जाते हैं। रोमांचित हो जाता है। ऐसी दशा या भावस्थिति में आनंद 3. दिव्यध्वनि - सुधा समान है, जिसे पीकर भव्य | मिलता है और आत्मा पवित्र बनती है। आचार्य कुमुदचन्द्र जन अजर अमर पद पा लेते हैं। इस स्तोत्र का उपसंहार करते हुए कहते हैं कि मैंने इसे स्वयं 4. चँवर - ढुरते हुए चँवर नीचे से ऊपर को जाते हैं, | की लोक-पूजा के लिए नहीं रचा, अपितु भक्ति में डूबकर जो सूचित करते हैं कि झुककर नमस्कार करने वाला चंवर | रचा है, फिर भी कुछ भी भक्ति नहीं कर पायी। जो कुछ भी के समान ऊपर यानी स्वर्ग/ मोक्ष जाता है। कर पाया हूँ उसका फल यही चाहता हूँ कि - "तुम होहु भव 5. सिंहासन - स्वर्णनिर्मित व रत्नजटित सिंहासन पर | भव स्वामि मेरे, मैं सदा सेवक रहूँ।" वे कहते हैं कि जब तक विराजे पार्श्वप्रभु की दिव्यध्वनि ऐसी लगती है, जैसे सुमेरुपर्वत | मोक्ष प्राप्त न हो, तब तक आपकी भक्ति से वंचित न रहूँपर काले मेघ गर्जना कर रहे हों। मेघों को जैसे मयूर उत्सुकता धन्यास्त एव भुवनाधिप ! ये त्रिसन्ध्यसे देखते हैं, ऐसे भव्य जीव प्रभु वाणी को लालायित हो माराधयन्ति विधिवद् विधुतान्यकृत्याः। सुनते हैं। भक्त्योल्लसत्पुलकपक्ष्मलदेहदेशाः, 6. भामण्डल - इसकी प्रभा से अशोक वृक्ष के पत्तों पादद्वयं तव विभो! भुवि जन्मभाजः॥34॥ की लालिमा लुप्त हो जाती है। इसी प्रकार सचेतन पुरुष भी भक्ति के कारण जिनके शरीर का रोम-रोम उल्लसित आपके ध्यान से राग-लालिमा को नष्टकर वीतरागता को | व पुलकित है, वे धन्य हैं। आपके चरणकमलों की उपासना प्राप्त होते हैं। करनेवाला मिथ्यात्व-मोह का अंधकार विदीर्ण कर स्वयं 7. दुन्दुभि - देवों द्वारा बजाये जाने वाले नगाड़े व | | आप जैसा आलोक पुरुष बन जाता है। घण्टा आदि के स्वर कह रहे हैं कि प्रमाद छोड़ पार्श्व प्रभु बीना (म.प्र.) की सेवा में उद्यत हो जाओ। मोक्षमार्ग है, मोहमार्ग नहीं गर्मी का समय था। विहार चल रहा था। एक महाराज जी (पद्मसागर जी) को अन्तराय हो गया। आचार्य गुरुदेव ने उन्हें उसी दिन उसी गाँव में रुकने को कहा। उन्होंने कहा- नहीं हम तो आपके साथ ही चलेंगे। दो, तीन बार कहने पर भी नहीं माने तो आचार्य श्री जी ने डाँटते हुए कहा- हम जैसा कहते हैं, वैसा करो। महाराज (पद्मसागर जी) मौन रहे, गुरुदेव के चरण छुये और रुकने की सहमति से सिर हिला दिया। उसी दिन संघ का विहार हो गया। गर्मी बहुत थी दूसरे दिन अगले गाँव में किसी भी मुनिराज से अच्छे से आहार नहीं लिये गये। ईर्यापथ भक्ति के बाद आचार्य श्री जी ने कहा- देखा महाराज मान नहीं रहे थे, उनकी तो यहाँ और हालत खराब हो जाती। शिष्य ने कहाक्या करें आचार्य श्री आपको कोई छोड़ना नहीं चाहता। ___आचार्य श्री ने कहा- ध्यान रखो यह मोक्षमार्ग है, मोह मार्ग नहीं। यह गुरुदेव की निःस्पृहवृत्ति एक अनोखा गुण है। वे हमेशा निरीहता के साथ जीवन व्यतीत करते हैं एवं सभी को निरीह बनने का उपदेश देते हैं। मुनिश्री कुंथुसागर-संकलित 'संस्मरण' से साभार -सितम्बर 2006 जिनभाषित 17 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36