Book Title: Jinabhashita 2006 09
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 21
________________ गतिविधियों आदि सभी की जानकारी मिल सके। साहित्यिक । तो दो परिवार संस्कारित हो जाते हैं । अभिरुचि के लोग आगे आयें और इस तरह के कार्य को अवश्य करायें। समाज के विभिन्न संगठन (बाल, युवा, महिला आदि) जो सक्रिय रहते हैं, उनका भरपूर सहयोग धार्मिक गतिविधियों में लें। समाज के विद्वानों का भी यथासमय सहयोग एवं मार्गदर्शन लेते रहें। जो लोग आर्थिक दृष्टि से संपन्न हैं, वे भी आगे आयें और विभिन्न कार्यक्रमों, प्रकाशनों आदि में अपना भरपूर योगदान देवें। महिलाओं के लिए चातुर्मास का समय एक उत्कृष्ट समय है। वे अपने कार्यों से एक उचित भूमिका निभा सकती हैं। चौके आदि की महत्त्वपूर्ण जिम्मेदारी का वहन महिलावर्ग ही करता है। धार्मिक शिक्षा ग्रहण करने का उचित अवसर चातुर्मास में ही मिलता है । आज समय की माँग है कि यदि महिला संस्कारित हो जाये, के आज ऐसे लोगों की भी कमी नहीं है, जो धार्मिकता विपरीत आचरण करते हैं। जिनकी कथनी-करनी में अन्तर होता है। ऐसे कार्य करनेवालों के प्रति विरोध अवश्य दर्ज होना चाहिए। ताकि धर्म के नाम पर कुछ भी करने वालों को सबक मिले। तो आइये, चातुर्मास में धर्म की प्रभावना कर सदाचार व संयम की रोशनी फैला दें, जिसकी आज परम आवश्यकता है। एक ऐसा सुखद धार्मिक वातावरण बनायें ताकि धर्मसंस्कृति के प्रति सभी की श्रद्धा बढ़े। " 'अहिंसा सिल्क' को पेटेंट मिला हैदराबाद, 12 जुलाई। सिल्क की चमक-दमक वाली साड़ी पसंद करने वालों को एक यह तथ्य विचलित कर सकता है कि एक स्टेंडर्ड साइज की 5.5 मीटर की सिल्क की साड़ी बनाने में 50 हजार से ज्यादा रेश्म के कीड़े मारे जाते हैं। उल्लेखनीय है सिल्क बनाने की पारंपरिक पद्धति में रेशम के कीड़ों को केकूनों सहित उबलते पानी में डाला जाता है। पोस्ट बाक्स नं. 20 खतौली, 251201 (उ. प्र. ) क्या यह विचार डराने वाला नहीं है कि एक सिल्क की साड़ी चुनने का मतलब 50 हजार जीवों की खालें पहनना है? यही प्रश्न कई वर्षों से आंध्रप्रदेश निवासी, के. राजैया के मस्तिष्क में बार-बार कौंधा करता था । इसी प्रश्न ने उन्हें सिल्क बनाने की नई पद्धति विकसित करने के लिए प्रेरित किया ताकि बिना क्रूरता के सिल्क बनाया जा सके और करोड़ों जीवों की जानें बचाई जा सकें। Jain Education International I राजैया द्वारा विकसित सिल्क उत्पादन की 'अहिंसात्मक' पद्धति को हाल ही में पेटेंट प्रदान किया गया पेटेंट मिलने के बाद राजैया ने बताया कि उन्होंने वर्ष 2002 में इस पद्धति के पेटेंट के लिए आवेदन किया था। वह उन्हें पिछले माह प्राप्त हुआ है। अब वे 'अहिंसा सिल्क' का उत्पादन कर सकेंगे। उल्लेखनीय है राजैया आंध्रप्रदेश हेण्डलूम वीवर्स को-ऑपरेटिव सोसायटी (एप्को) के वरिष्ठ तकनीकी सहायक के पद पर कार्यरत है। राजैया के अनुसार पारंपरिक पद्धति में सिल्क को रेशम के कीड़ों द्वारा बनाए गए केकूनों से निकाला जाता है। इस पद्धति में केकूनों को उबलते पानी में डाला जाता है जब रेशम के कीड़े इन केकूनों में निष्क्रिय अवस्था में पड़े होते हैं। इस प्रक्रिया के बाद केकूनों से सिल्क के रेशे काते जाते हैं। इसके विपरीत 'अहिंसा' पद्धति से सिल्क के उत्पादन किए जाने में दूसरी प्रक्रिया अपनाई जाती है जो पर्यावरण के अनुकूल होने के साथ ही क्रूरता से भी मुक्त है। इस प्रक्रिया में केकूनों से सिल्क निकाले जाने से पहले रेशम के कीड़ों को केकूनों से बच निकल जाने दिया जाता है। इस पद्धति में प्राप्त उत्पादन की मात्रा पारंपरिक पद्धति के उत्पादन के मुकाबले छह गुना कम होती है। क्योंकि रेशम का कीड़ा जब केकून से मुक्त होता है तब सिल्क के धागे की निरंतरता टूट जाती है। For Private & Personal Use Only साभार- 'दैनिक भास्कर', भोपाल दिनांक 13 जुलाई 2006 से साभार सितम्बर 2006 जिनभाषित 19 www.jainelibrary.org

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