Book Title: Jinabhashita 2006 09
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 14
________________ रुचि शुभोपयोगी को होती है, तभी वह शुभोपयोग, शुभोपयोग | कहता है, वह उस अपराध को मोक्ष का उपाय कैसे कह कहलाता है। सकता है ? आचार्य अमृतचन्द्रजी ने अपने पुरुषार्थसिद्ध्युपाय के | इस प्रकार मुझे तो सिद्धान्त और अध्यात्म में कोई अन्त में कहा है कि एकदेश रत्नत्रय का पालन करनेवालों के विरोध प्रतीत नहीं होता। विरोध तो सिद्धान्त और अध्यात्म जो कर्मबन्ध होता है, उसका कारण एकदेश रत्नत्रय नहीं है का पक्ष लेने वालों में है और वह तब तक दूरी नहीं हो किन्तु उसके साथ में जो शुभरागरूप शुभोपयोग रहता है, वह | सकता, जब तक वे अमृतचन्द्रजी के शब्दों में अपने मोह को उस कर्म का कारण है। वह श्लोक इस प्रकार है - स्वयं वमन करके सिद्धान्त-अध्यात्म रूप जिनवचन में रमण असमग्रं भावयतो रत्नत्रयमस्ति कर्मबन्धो यः। नहीं करते। पक्षव्यामोह को त्यागे बिना जिनवाणी का रहस्य स विपक्षकृतोऽवश्यं मोक्षोपायो न बन्धनोपायः॥ उद्घाटित नहीं होता; जिनवाणी स्याद्वादनयगर्भित है। जितने इसका अन्वयार्थ इस प्रकार है - (असमग्रं) एकदेश | वचन के मार्ग हैं, उतने ही नयवाद हैं, अतः नयदृष्टि के (रत्नत्रयं) रत्नत्रय को (भावयतः) पालन करने वाले के (यः | बिना जिनागम के वचनों का समन्वय नहीं हो सकता। इसी कर्मबन्धोऽस्ति) जो कर्मबन्ध होता है, (स अवश्यं) वह से आचार्य देवसेन ने नयचक्र में कहा - अवश्य ही (विपक्षकृतः) विपक्ष रागादिकृत है। जेणयदिट्ठिविहीणा ताण ण वत्थुसरूवउवलद्धी। यह तीन चरणों का अर्थ है । अन्तिम चरण स्वतन्त्र है, वत्थुसरूवविहीणा सम्मादिट्ठी कहं होति ॥ वह उक्त कथन के समर्थन में युक्ति है कि वह बन्ध रत्नत्रयकृत _ 'जिनके नयरूपी दृष्टि नहीं है, उन्हें वस्तु स्वरूप की क्यों नहीं है, रागकृत क्यों है ? क्योंकि (मोक्षोपायः) जो | उपलब्धि नहीं हो सकती, और वस्तु-स्वरूप की उपलब्धि मोक्ष का कारण होता है वह (बन्धनोपायोन)बन्धका कारण | के बिना सम्यग्दृष्टि कैसे हो सकते हैं ?' नहीं होता। आगे अमृतचन्द्रजी ने अपने इसी कथन की पुष्टि । किन्तु आज तो सम्यक्त्व के लिये वस्तुस्वरूप की की है कि जितने अंश में सम्यग्दर्शन. सम्यग्ज्ञान और | उपलब्धि को आवश्यक नहीं माना जाता। आज तो चारित्र' सम्यकचारित्र है उतने अंश से बन्ध नहीं है, जितने अंश में | धारण कर लेने मात्र से ही सब समस्या हल हो जाती है। आगम राग है उतने अंश में बन्ध होता है। और अध्यात्म में प्रतिपादित धर्म सम्यक्त्व से प्रारम्भ होता है। किन्त इतने स्पष्ट कथन के होते हए भी कछ विद्वान किन्तु आज के लोकाचार का धर्म सम्यक्त्व से नहीं, चारित्र से उक्त श्लोक के चतुर्थ चरण को भी पहले के चरणों के साथ प्रारम्भ होता है। इस उल्टी गंगा के बहने से न व्यक्ति ही लाभान्वित होता है और न समाज ही। इस स्थिति पर सभी को मिलाकर ऐसा अर्थ करते हैं कि वह विपक्षकृत बन्ध अवश्य शान्ति से विचार करना चाहिये।आचार्य समन्तभद्र के अनुसार ही मोक्ष का उपाय है, बन्धन का उपाय नहीं है। किसी भी जिनेन्द्र शासन में कोई विरोध नहीं है,विरोध हममें हैं। सिद्धान्तग्रन्थ में कर्मबन्ध को, भले ही वह पुण्यबन्ध हो, मोक्ष का अवश्य उपाय नहीं कहा है। फिर अमृतचन्द्रजी तो 'श्री आदिनाथ जिनेन्द्र बिम्बप्रतिष्ठा एवं गजरथ आगे ही लिखते हैं - 'आस्त्रवति यत्तु पुण्यं शभोपयोगस्य महोत्सव मदनगंज-किशनगढ़ (राज.) सन् 1979 स्मारिका' से साभार सोऽयमपराधः।' 'जो पुण्य का आस्रव होता है, वह तो शुभोपयोग का अपराध है।' जो ग्रन्थकार पुण्यास्रव को शुभोपयोग का अपराध • जाति, देह के आश्रित है और देह आत्मा के संसार का कारण है। इसलिए जो जाति का अभिमान करनेवाले हैं, वे संसार से छूट नहीं सकते। जिस प्रकार दूध पौष्टिक होने के साथ-साथ औषधिस्वरूप भी है, उसी प्रकार विद्वत्ता लौकिक प्रयोजन-साधक होती हुई मोक्ष का कारण भी होती है। 'वीरदेशना' से साभार 12 सितम्बर 2006 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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