Book Title: Jina Bhakti Author(s): Bhadrankarvijay Publisher: Prakrit Bharti Academy View full book textPage 5
________________ रंग में वृद्धि होती जाती है। जिन स्वरूप की पहचान करने के लिए वर्तमान काल में प्रधान साधन महान पूर्वाचार्यों द्वारा रचित प्रभावोत्पादक स्तोत्र हैं । इस कारण जिनेश्वर भगवान के अनुयायी हृदय में जिनभक्ति को स्थायी करने के लिए नित्य सात या नौ स्मरण आदि प्रभावशाली स्तोत्रों का पाठ करते हैं, परन्तु प्राज कल उनके पीछे अज्ञानवश लौकिक आशय प्रविष्ट होने लग गया है । वह विष स्वरूप होने से श्री जिनभक्ति की भावना का नाश करता है । उक्त ग्रनर्थ से बचने के लिये और हृदय में सच्ची जिन भक्ति जागृत करने के लिये सात या नौ स्मरण यादि स्तोत्रों के साथ इस पुस्तक में सम्मिलित स्तोत्रों का अध्ययन और उनका नियमित स्मरण एवं पाठ करना अत्यन्त आवश्यक है । परमात्म प्रस्तुत संकलन में पूर्वाचार्यों - सिद्धसेन दिवाकर, सिद्धर्षि गरिण, महाकवि धनपाल, कलिकाल सर्वज्ञ हेमचन्द्राचार्य, परमार्हत् कुमारपाल, यशोविजयोपाध्याय रचित वर्धमान द्वात्रिंशिका, जिन स्तवन, ऋषभ - पञ्चाशिका, प्रयोगव्यवच्छेद- द्वात्रिंशिका, अन्ययोगव्यवच्छेद- द्वात्रिंशिका, साधारण जिन स्तवन, परमज्योति पञ्चविंशतिका, पञ्चविंशतिका एवं वीतराग स्तोत्र प्रादि वैशिष्ट्यपूर्ण कतिपय जिन-स्तोत्रों को स्थान दिया गया है । ये स्तोत्र ग्रात्मा को जिन स्वरूप की सच्ची पहचान कराते हैं । ये स्तोत्र हृदय में जिनेश्वर देव एवं उनके शासन के प्रति भक्ति- राग उत्पन्न करते हैं। उनसे लौकिक प्राशंसा का एक अंश भी हमारे भीतर प्रविष्ट नहीं हो पाता । चित्त की शुद्धि के लिए ये अपूर्व रसायन स्वरूप हैं । इनका नियमित जाप करने से मिथ्यात्व रूपी मल नष्ट होता है, सम्यग्दर्शन गुण निर्मल होता है और दिन-प्रतिदिन हमारी आत्मा जिन-भक्ति में अधिकाधिक रंगती जाती है । जिन भक्ति के रंग में रंगी हुई आत्मा के लिए अष्ट सिद्धियाँ एवं नौ निधियाँ दूर नहीं रहतीं, परन्तु उनके लिए इन स्तोत्रों का पाठ नहीं करना है । जिन - भक्ति का महत्व हृदय में समझ में आये और वह हृदय में स्थिर हो जाए उसके लिए स्वाध्यायियों, उपधानवाहियों, पौषधव्रतधारियों एवं तपस्या करने वालों को इनका निरंतर पठन, स्मरण तथा जाप करना चाहिए । तत्त्वदृष्टा प्रशान्तमूर्ति पंन्यासप्रवर श्री भद्र करविजयजी गरिए ने उक्त प्राचीन स्तोत्रों को गुजराती अनुवाद के साथ सन् 1941 में पुस्तक ii ] [ जिन भक्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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