Book Title: Jaipur aur Nagpur ke Jain Granth Bhandar
Author(s): Premchand Jain
Publisher: University of Rajasthan

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Page 78
________________ 64 ] Begins Ends No. 5 Scribal remarks: इति श्री परमहंस परिव्राजकाचार्य अनुभुत स्वराचार्य विरचितायां सारस्वती प्रक्रियायां प्रथमावृतिः सम्पूर्णः ॥ लिपी की लिखाई कंवरलाल जी नेतत्पूत्र सूर्यमल जी साह का मीति कार्तिक बुदी ११ सं० १८५२ का । Author Size Extent Date of the Copy Subject Jain Granth Bhandars In Jaipur & Nagaur - श्री गणेशसाय नमः ॥ प्ररणम्य परमात्मानम् वालवी वृद्धि सिद्धये सारस्वती ऋजू कुर्वे प्रक्रिया नाति विस्तराम ॥ SAMAYASAR VRATTI -BHATTARAK JINCHANDRACHARYA SURI -10" X 6" -121 Folios; 12 lines per page; 32 to 35 letters per line. Description Country paper, rough and greyish; Devanagari characters in big, bold, clear and elegant hand-writing; borders ruled in three lines; the manuscript contains both the text and commentary; it is in a satisfactory condition; it is a complete work, written in Prakrit and Sanskrit. Begins - या संख्या एपां ते सति का संख्या येषां ते सकाति ॥ १॥ लोकाश्रयप्य सिद्धिः । Ends. Ref. No, 34 8 -Fairly old -THE TEXT ALONG WITH THE COMMENTARY. SANSKRIT - ॐ नमों कांताय ॥ श्री सर्व्वज्ञ जिनं तत्वा सर्व्वं सत्वहितावहं । पदार्थ दीपिका सारां टीकां कुव्वंसुः कौमलाम् ॥१॥ नमः समयसाराय . स्वानुभूत्या.. चकाशते । चित्तस्वभावाय सर्वभावान्तर छिद्र ॥२॥ ! YIN - अमृतचंद्र सूरे: किंचित्कर्त्त व्यनास्ति । श्रमृतचंद्रसूरिः ग्रोथ कनृनामतस्य अमृत चंद्रस्य किं चित्किमपि नाटकसमयसारस्य कर्त्तव्यं नास्ति । ग्रंथकर्त्तानाम्तस्य अमृतचंद्रनामाचार्यास्ति । तथापि महातंसार विरक्ताये ग्रांथकरणाभि• मानंन कुर्वन्ति कीदृशस्य समयस्य अमृतचंद्रसूरेः । स्वरूप गुप्तस्य द्वादशागं

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