Book Title: Jaipur aur Nagpur ke Jain Granth Bhandar
Author(s): Premchand Jain
Publisher: University of Rajasthan

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Page 138
________________ 1241 . Jain Granth Bhandars In Jaipur & Nagaur द्विजराज समावर प्रभू को बखाने जो कुमद मति समझत कछु नहीं लिभार जू ।। शशि कला हीन दिन दिन होत क्षीण, तनु तेरी कला दिन दिन बढ़े अपार जू । कोऊ पर तिया विरहणी • सतावत, जिन कूसव लोकन कूसुख उपगार जू । भरयो है कलंक हुं मैं तो, तू तो निकलंक जिन हर्ष कहत मो पद्म प्रभू तारजू ॥ ६ ॥ Ends - मल्लिनाथ मिल्या मेरे भाग वसे सुख सम्पत्ति आज दशा प्रगटी । . मनु मेरू वरावर मेरो भयो घरि प्रांगण गंग नदी उलटी ।. दृग देखत ही भए शीतल दोऊ, पराकृत पात्ति करी संघटी। जिन हर्प कहे प्रभू तेरे दरशन, जीव अज्ञान की .,वाकी घटी ॥१६॥ ... चंद्र वदन सदन मदन को जारिण , विधाता. को श्राप उपाई । चंचल नैन सू वैरण अमोलक देल, जग मग जोति बनाई । . पीन पयोधर तारन में हरि, लंक प्रिया गज चालि हराई । देव त्रिया मुनि सुव्रत के जिन हर्ष कहे पय. बन्धन प्राई ॥२०॥ मोहन मूरति, शशि वदन, सरोज नैन, जूह की कुटिलाई अधिक विराजे है। सारंग शिखा अवात नासिका तैसी दिखत मूगियां से होंठ किंधू बाल छाजे हैं । दसन हीरा सी पंक्ति, छवि मुगता की छु ति, कोकिला कंठ, वाणी जलधर गाजे है । ऐसी भांति उपदेश सुणे. नमिनाथ को. जिन ... हर्ष भ्रमण भय भाजे हैं ॥२॥ सील. को सनाह, अंग सकीरण. अरण भंग जुरे मदन सौ जग नेमः प्रभू गाजि के । क्षमा की अजब ढाल, तप कीनी करपाल, भावना शरीर ढाल, धीर टोप साज़ के । ज्ञान गजराज, सुनि धरम राजे, कहै जिन हरप, जेती सुगुण पांइ दल राजि के । दया के उरे निषारण उपकलई भूत ध्यान काम दशा जीवी रहे मुरति विराज के ॥२२॥ अरचे जसु पाई, सुरासुर राम प्रमु गुण गाई सु सेव करै । सुखदायक दायक लोक है जाकी कीति लोक लोक फिरै । अतुली वल एक अनेक विराजत. रोग विजोग समूल हरै । जिन हर्ष कहे प्रभू पास जिनन्द की सेव करो भया चित खरै ॥२३॥ कंचन गात सुहात है मुरति, क्षत्री. कुलै. अवतार लियो । हरि प्रक निशंक उपकृत, सुकृत कंद प्रभु उदयो । जिन शासन नायक दायक वांछित देखत ही दुःख दूरि गयो । जिन हर्ष कहे, महावीर जिनेश्वर नाम निरंजन सिद्ध जयौ ॥२४॥ इति श्री चतुर्विशंति जिनानां स्तुति सवैया सम्पूर्णम्, लिखितं संवत् १७५४ व आसोज बदी ६, शुक्रवासरे। .. ॥ श्री ॥ श्री ॥

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