Book Title: Jaipur aur Nagpur ke Jain Granth Bhandar
Author(s): Premchand Jain
Publisher: University of Rajasthan
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Bisapanthi Dig. Jain Temple Granth Bhandar Nagaur
Subject:
Begins,
Ends
No. 15
Author
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Description
-JAINA SIDHANTAS
- श्री जिनायनमः ॥
धवल मंगल नदं जनवह मुहलंमि सिद्ध छरिणव मंदिरं मिनरलोय हरि सुवासंकास्मिन् सग्राउजिरणु । जया उपरिम कल्लारण कलसुवा ग्रहणं सिद्धि व विमलुमत्ताव लिहिरिणमिवु । सहसु त्रिरणपिय कारिणिरण सिप्पि हिमित्ति उरिकु ॥ १ ॥
- इति
स्वर्गावतार वस्त्रु
अहसमविक
प्रमाणिउ
हपमुहसुत्त वृत्त माराहणाय
कुडुसंघी हवस्ममोत्र || संधि ४८ ॥ शुभं भवतु ॥ श्री रस्तु ॥
Scribal remarks:
सम्वत् १६२८ वर्ष फागुरण वदि २ दिने शुकवासरे पातिसाह अकबर राजे जोबोर स्थाने श्री मूलसंघे बलात्कारगणे सरस्वती गच्छे । नंद्यामनाये श्री कुन्दकुन्दाचार्यान्वये भट्टारक श्री पद्मनंदि देव तत्पट्टे भट्टारक श्री शुभचन्द्र देव तत्पट्टे भट्टारक जिनचन्द्र देवा तत्पट्टे श्री प्रभाचन्द्र देवाद्वितीय शिष्य मण्डलाचार्य श्री रत्नकीर्ति देवास्तत् शिष्य श्राचार्य श्री भूवनकीर्ति देवा तत् शिष्याचार्य धर्मकीर्ति देवा श्री भूवनकीर्ति द्वितीय शिष्य मण्डलाचाय श्री विशाल कीर्ति देवा तत् शिष्य मण्डलाचार्य श्री लक्ष्मीचन्द्र देवा तदाम्नाये खण्डेवालान्वये धुरन्धर उपदेश निर्वाहक आहारभय भैषज्य शास्त्रदान वितरणप्रवीरण स्वर्गापवर्ग सुखदायक श्री दशलाक्षणीक धर्माराधनेक चतुरः । पञ्च प्रकार भव भ्रमण निवारक श्री पञ्च परमेष्ठी मंत्राराधनैः कन्तुरः साहलाख तत यन्त्री सीलसालिनी दानादि श्रेष्ठि गुरणधारिणि साध्वी मानां तत् पुत्रौ द्वी प्रथम पुत्र सजरूप्रदेश निर्वाहक त्रिपचाशत क्रिया प्रतिपालनक चंतुर शुद्ध सम्यक्ताद्विर वरभावनैक समर्थ एकादश प्रतिमा धारकस्य पादारविन्द सेवनैक षट्पट चिरंजा तेजा द्वितीयो प्रानो मुनिः संजातः । मण्डलाचार्य श्री विशालकीर्ति तत् शिष्य मण्डलाचार्य श्री लक्ष्मीचन्द तत् शिष्य श्री तेजातेनेदं ज्ञानावाज्ञान दानेन निर्भयोभयदानतः । श्रन्नदाता सुखीनित्यं निर्भयोभय दानतः ॥ १ ॥
[133
SAMADHITANTRA -KUNDKUNDACHARYA
Ref. No 1333 / A
-83"X4"
— 5 Folios, 11 lines per page, 40 letters per line.
- Country paper, rough and greyish; Devanagari characters
in legible, small and good hand-writing; borders raled in

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