Book Title: Jaipur aur Nagpur ke Jain Granth Bhandar
Author(s): Premchand Jain
Publisher: University of Rajasthan

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Page 125
________________ Tholia Jain Temple Granth Bhandar . .. Ends. -श्री परमात्मने नमः । श्री सरस्वत्यै नमः। देव निरन्जरणने नमु, अलख अजर अभिराम । घट घट अन्तर प्रातमा, परम जोत परिणाम ॥१॥ सावद वचन सबै तजि, राजरिध भण्डार । वनवासी मुनिवर ने नमु, जे श्रद्धा अरणगार ॥२॥ जिनवर वाणी ने नमु, भविक जीव हितकार । जन्म मरण ना दूख चक्री टूटे ते निरधार ॥३॥ शिलवंत नर नार नै, समकीत वरत सहीत । हरप घटी तेहनै नमु, कर्म सुभट जैरणे जीत ॥४॥ सन्तोषी कवले सदा समता सहित सुजाण । डर्या विसऱ्या रहे सदा ते पहुंचे निरवाण ॥२४०७॥ प्रागमवाणी उचर उर न बोले बोल ॥ दया पर 4 रातदिन हंसाये रहे अबोल ॥२४०८।। एक भगत चूके नहीं पाछे जल नो त्याग ।। प्रात्म हित जाणे सही ते समझे जिन मार्ग ॥२४०६ ।। . पर निंदा मुख नवि गमें हास्यादि न करत:। . संका कांक्षा कोये नहीं जीत्यो. ते शिवमंत ॥२४१०॥ एहने मारग जै चले ते नर जागो साध । एण की बीजा जे नरा ते सब जाणो बाध ॥२४११ इति श्री कर्म-विपाक सूत्र चौपई सम्पूर्णम् । श्री उदयपुर नगर मध्ये लिपि कृता। " No. 4 Size : ..Extent . : ... .. Description NIRGHANTU DHANVANTARI -930x41" . -168 Folios, 8 lines per page, 25 letters per line. -Country paper, rough and grey; Devanagari characters in big, legible and clear Mand-writing; borders ruled in four. lines in red ink, edges ruled in two lines in red ink; it is . a complete manuscript, in good condition, written in Sanskrit. .

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