Book Title: Jaipur aur Nagpur ke Jain Granth Bhandar
Author(s): Premchand Jain
Publisher: University of Rajasthan

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Page 127
________________ Tholia Jain Temple Granth Bhandar 1113 Scribal remarks: श्रावक कुल मोट मुजस. खण्डेलवाल बखाण । साहबड़ा साखा बड़ी, भीम जीव कुल भाण ॥१॥ राज तसु सुत रेखजी पुण्यवंत सुप्रमाण । । ताको कुल सिंगार, सुत जीवराज सुभजाण ॥२॥ पुर नीलाही में प्रसिद्ध, राज सभा को रूप । जीवराज जिन धर्म में, समझ पातम रूप ॥३॥ करि बादर बहु तिन करो, श्री धर्मसी उवझाय । परमात्म परकास को, वार्तिक देहु बनाय ॥४॥ परमात्म परकास को शास्त्र अथाह समुद्र । मेठा अर्थ गम्भीर भरणे दलै अग्यान दलिद्र ॥५॥ सुगुरु ग्यान अवक सजे पाये कीये प्रतध । अर्थ रतन धरि जतन सु, देखो परखो पद्य ।।६।। सतरह-सै वासठि समै, पखयजु सुरणसार । परमात्म परकास को वार्तिक कह्यो विचारि ॥७॥ कीरति सुन्दर सुमकला, चिरंजीव जीवराज । श्री जिन शासन सानधे सुधर्म सुभिख सुराज ॥६॥ इति श्री योगीन्द देव विरचिते तीनसोपंतालीस दोहा पद प्रमाण परमात्मप्रकास - का वालावबोध सम्पूर्ण संवत् १८७२ वर्षे माहवुदि ५ नै लिखितं । . No. 6 . Author Size : Extent Description Ref. No. 18 SAMAYASAR -AMRITCHANDRACHARYA -1010x4" -~-191 Folios. -Country paper, rough and white; Devanagari characters in big, legible, .clear and good hand-writing; borders ruled in three lines in black ink, edges in two; it is in a fair condition, the manuscript is complete; written in Prakrit anri Sanskrit; the manuscript contains both the text and commentary.

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