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में क्रान्ति ला सकता है। ज्ञान के बिना उग्र क्रिया-काण्ड करते हुए हजारों वर्ष बीत जाएँ, तब भी कुछ नहीं हो सकता। बहुत बार तो विवेक-शून्य तपश्चरण आत्मा को उन्नत बनाने की अपेक्षा अधःपतन की ओर घसीट कर ले जाता है और साधक को किसी काम का नहीं छोड़ता।
कमठ, उस समय का एक महान् प्रतिष्ठा-प्राप्त तापस था। सर्वप्रथम पार्श्वनाथ की उसी से विचार-चर्चा हुई। कमठ ने वाराणसी के बाहर गंगा-तट पर डेरा डाल रखा था, और पञ्चाग्नि तप के द्वारा हजारों लोगों का श्रद्धा-भाजन बना हुआ था। श्री पार्श्वनाथ इंस समय वाराणसी युवराज थे। युवराज पार्श्वकुमार ने इस मिथ्याचार के विषवृक्ष को जड़ से उखाड़ फेंकने का विचार किया, और गंगा-तट पर तपस्वी से धर्म के सम्बन्ध में बड़ी गम्भीर चर्चा करते हुए सत्य के वास्तविक स्वरुप को जनता के समक्ष रखा। तपस्वी की धूनी के एक बड़े से पुराने लक्कड़ से एक विशाल विषधर नाग जल रहा था। राजकुमार पार्श्व ने अपनी सुमधुर वाणी से सद्बोध देकर नाग का उद्वार किया। उक्त घटना का जैन-समाज में बड़ा भारी महत्व है। श्री हेमचन्द्राचार्य, भावदेव आदि प्राचीन विद्वानों ने स्वरचित पार्श्वचरित्रों में इस सम्बन्ध में अतीव हृदयग्राही एवं विवेचनापूर्ण वर्णन किया है। वर्तमान कालचक्र में जितने भी तीर्थकर हुए हैं उन सब में श्री पार्श्वनाथ ही ऐसे हैं, जिन्होंने गृहस्थ दशा में ही इस प्रकार सार्वजनिक, धर्म-चर्चा में भाग लेकर सत्य के प्रचार का श्रीगणेश किया। क्षमा का देवता
- भगवान् पार्श्वनाथ का साधना-काल बड़ा बिलक्षण रहा है। युवावस्था में ही काशी देव के विशाल साम्राज्य को ठुकरा कर मुनिदीक्षा धारण की और इतनी सफल तपःसाधना की, जिससे हर कोई सहृदय जन सहसा चमत्कृत हुए बिना नहीं रह सकता। उनका हृदय सहन-शीलता से इतना अधिक परिपूर्ण था कि वे भयंकर से
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जैनत्व की झांकी (28) Jain Education International
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