Book Title: Jainatva ki Zaki
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 189
________________ ३० " वनस्पति में भी हमारी ही तरह चेतना है, प्राण हैं, और सुख-दुःख की अनूभुति करने की क्षमता है।" जैन-धर्म का यह शाश्वत सिद्धांत कभी कुछ तार्किक और मनचले लोगों के उपहास का विषय था। पर आज प्रकृति-विज्ञान की नवीन उपलब्धियों ने इस सिद्धान्त को अक्षरशः सत्य सिद्ध कर दिया है। पढ़िए विज्ञान की उपलब्धियों के रोचक और आश्चर्यजनक प्रमाण | वनस्पति में जीव वृक्षों में वनस्पतियों में जीवन होने की बात हम भारतवासी आज से नहीं, हजार वर्षो से मानते आए हैं। हमारे तत्वदर्शी ज्ञानियों ने अपनी विकसित आत्म-शक्ति के द्वारा वनस्पतियों में जीव होने की बात का पता बहुत पहले से ही लगा लिया था । जैन-धर्म में तो स्थान-स्थान पर वृक्षों में जीव होने की घोषणा की गई है। भगवान महावीर ने आचारांग सूत्र में वनस्पति की तुलना मानव शरीर से बतलाई है। आचारांग का भाव इन शब्दों में प्रकट किया जा सकता है १. जिस प्रकार मनुष्य जन्म लेता है, युवा होता है और बूढ़ा होता है, उसी प्रकार वृक्ष भी तीनों अवस्थाओं का उपभोग करता है। २. जिस प्रकार मनुष्य में चेतना - शक्ति होती है, उसी प्रकार वृक्ष भी चेतना-शक्ति रखता है, सुख-दुःख का अनुभव करता है। और आघात आदि सहन करता है। ३. जिस प्रकार मनुष्य सिकुड़ता है, कुम्हलाता है और अन्त में क्षीण होकर मर जाता है, उसी प्रकार वृक्ष भी आयु की समाप्ति पर सिकुड़ता है, कुम्हलाता है और अन्त में मर जाता है। जैनत्व की झाँकी (178) Jain Education International - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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