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जन-सेवा ही जिन-सेवा है
आचार्य हरिभद्र और कमलसंयम ने भगवान् महावीर तथा गौतम का एक बहुत सुन्दर हमारे सामने प्रस्तुत किया है। संवाद में भगवान् महावीर ने दुःखियों की सेवा की अपेक्षा भी अधिक महत्व दिया है। संवाद का विस्तृत एवं स्पष्ट रुप इस प्रकार है
श्री इन्द्रभूति गौतम ने जो महावीर के सबसे बड़े गणधर थे-भगवान् से पूछा-"भगवान्! एक भक्त दिन-रात आपकी सेवा करता है, आपकी पूजा-अर्चना करता है, फलतः उसे दूसरे दीन दुखियों की सेवा के लिए अवकाश नहीं मिल पाता। दूसरा सज्जन दीन-दुखियों की सेवा करता है, सहायता करता है, जन-सेवा में स्वयं को घुला-मिला देता है, जन-जीवन पर दया का वर्णन करता है, फलतः उसे आपकी सेवा के लिए अवकाश नहीं मिला पाता। भंते! दोनों में आपकी ओर से ६ न्यवाद का पात्र कौन है और दोनों में श्रेष्ठ कौन है?'
__ भगवान् महावीर ने उद्बोधन-भरे स्वर में स्वर में उत्तर दिया-*गौतम! जो दीन-दुखियों की सेवा करता है, वह श्रेष्ठ है, वही मेरे धन्यवाद का पात्र है और वही मेरा सच्चा पुजारी है।' गौतम विचार में पड़ गए कि यह क्या? भगवान् की सेवा के सामने अपने ही दुष्कर्मों से दुःखित पापात्माओं की सेवा का क्या महत्व? धन्यवाद तो भगवान के सेवक को मिलना चाहिए। गौतम ! मेरी सेवा, आज्ञा के पालन करने में ही तो है। इसके अतिरिक्त अपनी व्यक्तिगत सेवा के लिए तो मेरे पास कोई स्थान ही नहीं है। मेरी सबसे बड़ी आज्ञा यही है कि दुःखित जन-समाज की सेवा की जाय, उसे सुख-शान्ति पहुँचाई जाय । प्राणि-मात्र पर दया भाव रखा जाय । अतः दुखियों की सेवा करने वाला मेरी आज्ञा का पालक है। गौतम! इसलिए मैं कहता
१ उत्तराध्ययन सूत्र २६, ४३।
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जैनत्व की झांकी (188)
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