Book Title: Jainatva ki Zaki
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 197
________________ अन्तिम उग्र रुप को महामोहनीय कहते हैं। उसके तीन भेदों में से पच्चीसवाँ भेद यह है कि- 'यदि आपका साथी बीमार है या किसी घोर संकट में पड़ा हुआ है, और आप उसकी सहायता या सेवा करने में समर्थ है, फिर भी यदि आप सेवा न करें और यह विचार करें कि इसने कभी मेरा काम तो किया नहीं, मैं ही इसका काम क्यों करूँ ? कष्ट पाता है तो पाए अपनी बला से मुझे क्या ? भगवान् महावीर ने अपने चम्पापुर के धर्म-प्रवचन में स्पष्ट ही इस सम्बन्ध में कहा है कि- 'जो मनुष्य इह प्रकार अपने कर्त्तव्य के प्रति उदासीन होता है, वह धर्म से सर्वथा पतित हो जाता है। गक्त क्रूर विचारों के पाप के कारण वह ७० कोटाकोटि सागर तक चिरकाल जन्ममरण के चक्र में उलझा रहेगा, सत्य के प्रति अभिमुख न हो सकेगा ।' सेवा का महान् फल गृहस्थ ही नहीं, साधु वर्ग को भी सेवा-धर्म का बड़ी कठोरता से पालन करता होता है। भगवान् महावीर ने कहा है कि- 'यदि कोई साधु अपने बीमार या संकटापन्न साथी को छोड़कर तपश्चरण करने लग जाता है, शास्त्र - चिन्तर में संलग्न हो जाता है, तो वह अपराधी है, संघ में रहने योग्य नहीं है । उसे एक सौ बीस उपवासों का प्रायश्चित लेना पड़ेगा, अन्यथा उसकी शुद्धि नही हो सकती।' इतना ही नहीं, एक गांव में कोई साधु बीमार पड़ा हो और दूसरा साधु जानता हुआ भी गाँव से बाहर ही बाहर एक गाँव से दूसरे गाँव में चला जाए, रोगी के सेवा के लिए गाँव में न आए तो वह भी अपराधी है। भगवान् महावीर का कहना है कि 'सेवा स्वयं एक बड़ा भारी तप है । 2 अतः जब भी कभी सेवा करने का पवित्र अवसर मिले, तो उसे नहीं छोड़ना चाहिए। सच्चा जैन वह है, जो सेवा करने के १ दशाश्रुतस्कन्ध, नवम दशा । जैनत्व की झाँकी (186) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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