Book Title: Jainatva ki Zaki
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 195
________________ ३१ जैन-धर्म परलोक का धर्म ही नहीं, इस लोक का भी धर्म है। उसमें सेवा, समर्पण और सहयोग की महान् प्रेरणाएँ छिपी हैं। सेवा उसका उत्कृष्ट आदर्श है। सेवा और समर्पण की संस्कृति का शास्त्रीय आधार पर विशद विवेचन प्रस्तुत अध्याय में किया गया है। जैन - संस्कृति में सेवा भाव जैन - संस्कृति की आधार - शिला प्रधानतया निवृत्ति है, अतः उसमें. त्याग, वैराग्य, तप और तितिक्षा आदि पर जितना अधिक बल दिया गया है, उतना और किसी नियम- विशेष या सिद्धांत- विशेष पर नहीं । परन्तु जैन धर्म की निवृत्ति, साधक को जन सेवा की ओर अधिक-से-अधिक आकर्षित करने के लिए है। जैन धर्म का आदर्श यह है कि प्रत्येक प्राणी एक दूसरे की सेवा करें, सहायता करे और जैसी भी अपनी योग्यता तथा शक्ति हो, उसी के अनुसार दूसरों के काम आए। जैन-धर्म में जीवात्मा का लक्षण ही सामाजिक माना गया है, वैयत्तिक नहीं । प्रत्येक सांसारिक प्राणी, अपने सीमित वैयत्तिक रुप में अपूर्ण हैं, उसकी पूर्णता आस-पास के समाज में और संघ में निहित है। यही कारण है कि जैन-संस्कृति का जितना अधिक झुकाव आध्यात्मिक साधना के प्रति है, उतना ही ग्राम नगर और राष्ट्र के प्रति भी है। ग्राम नगर और राष्ट्र के प्रति अपने कर्त्तव्यों को जैन साहित्य में धर्म का रूप दिया जाता है। भगवान् महावीर ने अपने धर्म प्रवचनों में ग्राम-धर्म, नगर-धर्म और राष्ट्र-धर्म को बहुत ऊँचा स्थान दिया ' १ परस्परोग्रही जीवानाम् - तत्वार्थाधिगमसूत्र ५, २१ । जैनत्व की झाँकी (184) Jain Education International For Private & Personal Use Only - www.jainelibrary.org

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