Book Title: Jainatva ki Zaki
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 187
________________ जैन-धर्म का सच्चा उपासक कौन ? यद्यपि भगवान् महावीर के उत्तरवर्ती आचार्यों में वैदिक परम्परा के निकट सम्पर्क में रहने के कारण जातिवाद के पृष्ठपोषक कुछ विचार घर कर गये हैं। वे भी धर्नस्थान, मन्दिर और भिक्षा आदि के सम्बन्ध में वैदिक परम्परा का अनुसरण करके स्पृश्य-अस्पृश्य का भेद खड़ा कर रहे हैं, पर उन्हें समझना चाहिए कि यह विचार मूलतः जैनधर्म का एवं हमारे परमाराध्य भगवान् महावीर का नहीं है। जैन धर्म प्रारम्भ से ही जातिवाद का विरोधी रहा है। इतिहास बताता है कि वैदिक-परम्परा के कट्टर जातिवाद के समक्ष श्रमण-परम्परा ने कितना बड़ा संघर्ष किया है। और साथ ही, कितना बलिदान किया है। आचार्य जिनसेन के शब्दों में उसका सदा से यही उद्घोष रहा है कि-'मनुष्यजातिरेकैव'-मनुष्य जाति एक है, मनुष्य १. पंचम गुणस्थान में नीच-गोत्र के उदय का उल्लेख पशु जाति के लिए किया गया है, मनुष्य के लिए नहीं। मनुष्य के बीच किसी प्रकार का भेद नहीं है। कोई जन्म से ऊँच-नीच और छोटा-बड़ा नहीं होता, ऊँच-नीच आचरण से होता । आज भगवान् महावीर के अनुयायी अपने को परखें कि वे अपने प्रभु के इन उपदेशों पर स्थिर हैं या समय और वातावरण के बहाव में बह गये हैं। सच्चा अनुयायी वही होता है, जो अपने आराध्य के उपदेशों पर आचरण करें, अपने विवेक को जागृत रखें और परिस्थितियों के प्रवाह में न बहे। आज के युग में जातिवाद के विरुद्ध पुनः जोरदार आवाज उठ रही है। समाज और राष्ट्र जागृति के दौर में चल रहा है। जातिवाद के पुराने आधार टूट गये हैं, मानव-समाज आज फिर प्रेम से गले मिलने को आतुर है, एक राष्ट्र ही नहीं, बल्कि समूचा संसार मानव-मानव - - जैनत्व की झाँकी (176) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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