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ईस्वी पूर्व आठ सौ वर्ष ! भारत के आध्यात्मिक जीवन में विवेकशून्य क्रिया-काण्डों और धार्मिक अन्ध-विश्वासों का बोलबाला था । अन्ध-विश्वासों की इन काली घटाओं को चीरकर सहसा एक बाल- रवि भारत के अध्यात्मिकक्षितिज पर चमक उठता है, चारों ओर सम्यक् ज्ञान का प्रकाश जग मगाने लगता है। इस धर्म-क्रान्ति का सजीव चित्र 'भगवान पार्श्व - नाथ' के जीवन में देखिए ।
भगवान् पार्श्वनाथ
भगवान् पार्श्वनाथ वर्तमान काल-चक्र के तेईसवें तीर्थकर हैं । उनकी प्रख्यति भी जैन समाज में कुछ नहीं है। जैन साहित्य का स्तोत्र विभाग अधिकतर उन्हीं के स्तुति -पाठों से भरा पड़ा है। हजारों स्तोत्र उनके नाम पर बने हुए हैं। जिन्हें लाखों नर-नारी बड़ी श्रद्धा-भक्ति के साथ नित्यपाठ के रुप में पढ़ते हैं। आचार्य सिद्धसेन दिवाकर की महान् कृति कल्याण - मन्दिर स्तोत्र तो इतना अधिक प्रसिद्ध है कि शायद ही कोई धार्मिक मनोवृत्ति का शिक्षित जैन हो, जो उसे न जानता हो ।
मूल आगमों में भी भगवान् पार्श्वनाथ की कीर्ति - गाथा बड़े श्रद्धाभरे शब्दों में गाई गई है। भगवती सूत्र में बहुत से स्थलों पर उनका नामोल्लेख मिलता है और स्वयं भगवान् महावीर ने भी उन्हें महापुरुषों की कोटि में स्वीकार करते हुए अतीव सम्मानपूर्ण शब्दों में स्मरण किया है।
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जैन - संसार ही नहीं, अजैन संसार भी पार्श्वनाथ के नाम से खूब परिचित है । एक प्रकार से अजैन संसार तो एकमात्र उन्हें ही जैनों का उपास्यदेव समझता है। बहुत-से अजैनों को स्वयं लेखक ने यह कहते हुए सुना है कि ये जैन हैं, जो पार्श्वनाथ को मानने
जैनत्व की झाँकी (26)
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