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जैन धर्म में मनुष्य से बढ़कर और कोई दूसरा महान् प्राणी नहीं है। जैन-शास्त्रों में आप जहाँ कहीं भी देखेंगे, मनुष्यों के सम्बोधन करते हुए “देवाणपिप्य” शब्दों का प्रयोग पायेंगे। उक्त सम्बोधन का यह भावार्थ है कि 'देव संसार' भी मनुष्य के आगे तुच्छ है। वह भी मनुष्य के प्रति प्रेम, श्रद्धा एवं आदर का भाव रखता है। मनुष्य असीम तथा अनन्त शक्तियों का भण्डार है। यह दूसरे शब्दों में स्वयंसिद्ध ईश्वर है, परन्तु संसार की मोह-माया के कारण कर्म-मल से आच्छादित है, अतः बादलों से ढंका हुआ सूर्य है, जो सम्यक् रुप से अपना प्रकाश प्रसारित नहीं कर सकता। ___ परन्तु ज्यों ही वह होश में आता है, अपने वास्तविक स्वरुप को पहचानता है, दुर्गुणों को त्यागकर सद्गुणों को अपनाता है, तो धीरे-धीरे निर्मल, शुद्ध एवं स्वच्छ होता चला जाता है, एक दिन जगमगाती हुई अनन्त शक्तियों का प्रकाश प्राप्त कर मानता के पूर्ण विकास की कोटि पर पहुँच जाता है और सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, ईश्वर, परमात्मा शुद्ध बुद्ध बन जाता है। तदन्तर जीवनमुक्त दशा में संसार को सत्य का प्रकाश देता है और अन्त में निर्वाण प्राप्त कर मोक्ष-दशा में सदा काल के लिए अजर-अमर अविनाशी-जैन परिभाषा में सिद्ध हो जाता है।
अस्तु, तीर्थंकर भी मनुष्य ही होते हैं। वे कोई अद्भुत देवी सृष्टि के प्राणी, ईश्वर, अवतार या ईश्वर के अंश जैसे कुछ नहीं होते। एक दिन वे भी हमारी-तुम्हारी तरह वासनाओं के गुलाम थे, पाप-मल से लिप्त थे, संसार के दुःख शोक-आधि-व्याधि से संत्रस्त थे। सत्य क्या है, असत्य क्या है-यह उन्हें कुछ भी पता नहीं था। इन्द्रियसुख ही एकमात्र ध्येय था, उसी की कल्पना के पीछे अनादि काल से नाना प्रकार के क्लेश उठाते, जन्म स्मरण के झंझावत में चक्कर खाते घूम रहे थे। परन्तु अपूर्व पुण्योदय से सत्पुरुषों का संग मिला, चैतन्य और जड़ का भेद समझा, भौतिक
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जैनत्व की झाँकी (42) Jain Education International
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