Book Title: Jainatva ki Zaki
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 152
________________ वाला और कर्मफल का देने वाला मानेंगे, तो संसार में जितने भी अत्याचार - दुराचार होते हैं, सबका करने वाला ईश्वर ही ठहरेगा । इसके लिए प्रबल प्रमाण यह है कि जितने भी कर्म फल मिल रहे हैं, सबके पीछे ईश्वर का हाथ है। और फिर यह अच्छा तमाशा होता है * कि अपराधी ईश्वर और दण्ड भोगे जीव ? 'ईश्वर भक्ति' का उद्देश्य जैन-धर्म परमात्मा को जगत् का कर्ता और कर्म - फल का दाता सही मानता है। इस पर हमारे बहुत से प्रेमी यह कहा करते हैं कि- "यदि परमात्मा हमें दुःख से मुक्त कर सुख नहीं दे सकता, तो उसकी भक्ति करने की क्या आवश्यकता है ? जो हमारे काम ही नहीं आता, उसकी भक्ति से आखिर कुछ लाभ ?" जैन-धर्म उत्तर देता है कि क्या भक्ति का अर्थ काम कराना ही है। परमात्मा को कर्मकर बनाए बिना भक्ति हो ही नहीं सकती ? यह भक्ति क्या, यह तो एक प्रकार की तिजारत है, व्यापार है । इस प्रकार कर्त्ताबादियों की भक्ति, भक्ति नहीं, ईश्वर को फुसलाना है। और अपने सुख के लिए उसकी चापलूसी करना अथवा घूस देने का प्रयत्न करना है। जैन धर्म में तो बिना किसी इच्छा के प्रभु की भक्ति करना ही सच्ची भक्ति है । निष्काम भक्ति ही सर्वश्रेष्ठ है। अब रहा यह प्रश्न कि आखिर इससे कुछ लाभ है या नहीं। इसका उत्तर यह है कि परमात्मा आध्यात्मिक उत्कर्ष का सर्वोच्च आदर्श है और उस आदर्श का उचित स्मरण हमें परमात्मा की भक्ति के द्वारा होता है। मनोविज्ञान - शास्त्र का नियम है कि जो मनुष्य जैसी वस्तु का निरन्तर विचार करता है, चिन्तन करता है, कालान्तर में वह वैसा ही बन जाता है वैसी ही मनोवृत्ति पा लेता है । जिसकी जैसी भावना होती है। वह वैसा ही रुप धारण कर लेता है। इस नियम के अनुसार परमात्म का चिन्तनमनन, भजन आदि से Jain Education International ईश्वर जगत्कर्त्ता नही (141) www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only

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