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दिन आरम्भ हुआ हो। अनादि का अर्थ है- आदि-रहित, जिसका कभी भी आरम्भ न हुआ हो, जो अनन्त काल से चला आ रहा हो। भिन्न-भिन्न दर्शनों ने इस सम्बन्ध में भिन्न-भिन्न उत्तर दिए हैं। जैन दर्शन भी इस प्रश्न का अपना एक अकाट्य उत्तर रखता है। वह अनेकांत की भाषा में कहता है कि कर्म सादि भी है और अनादि भी। इसका स्पष्टीकरण यह है कि कर्म किसी एक विशेष से कर्म-व्यक्ति की अपेक्षा से सादि भी है और अपने परम्परा-प्रवाह की दृष्टि से अनादि भी है। ___कर्म का प्रवाह कब से चला इस प्रश्न का 'हाँ' में उत्तर है ही नहीं। इसीलिए जैन-दर्शन का कहना है कि कर्म प्रवाह से अनादि है
और इधर प्रत्येक मनुष्य अपनी प्रत्येक क्रिया में नित्य नये कर्मों का बंध करता रहता है। अतः अमुक कर्म विशेष की अपेक्षा से कर्म को सादि भी कहा जाता है।
भविष्यकाल के समान अतीत काल भी असीम एवं अनन्त है। अतएव भूतकालीन अनन्त का बर्णन 'अनादि' या 'अनन्त' शब्द के अतिरिक्त अन्य किसी प्रकार से हो ही नहीं सकता। इसीलिए कर्मबंध की अमुक निश्चित तिथि माने, तो प्रश्न है कि उससे पहले आत्मा किस रूप में था। यदि शुद्ध रूप में था, कर्म-बंध से सर्वथा रहित था, तो फिर सर्वथा शुद्ध आत्मा को कर्म कैसे लगे? उसी दिन आत्मा का मोक्ष क्यों नहीं हो गया ? यदि सर्वथा शुद्ध आत्मा को भी कर्म लग जाएँ, तो फिर मोक्ष-दशा में सर्वथा शुद्ध होने पर भी कर्म-बंध का होना मानना पड़ेगा। इस दशा में मोक्ष का मूल्य ही क्या रहेगा ? केवल मुक्त आत्मा की ही क्या बात ? ईश्वरवादियों का शुद्ध ईश्वर भी फिर तो कर्म-बंध के द्वारा विकारी एवं संसारी हो जायगा । अतएव शुद्ध अवस्था में किसी भी प्रकार से कर्म बंध का मानना, युक्तियुक्त नहीं है। इसी अमर सत्य को ध्यान में रखकर जैन-दर्शन ने कर्म-प्रभाव को अनादि माना है।
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जैनत्व की झांकी (158) Jain Education International
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