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भयकर आपत्तियों में भी सर्वथा अचल - अकम्प रहे, जरा भी हृदय में ग्लानि का भाव नहीं आने दिया । कमठासुर ने उनको अतीव भीषण कष्ठ दिये। परन्तु वे उस पर भी अन्तर्हृदय से दया का शीतल निर्झर ही बहाते रहे। प्रभू के इस उदार समभाव पर आचार्य हेमचन्द्र ने त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित्र में क्या ही अच्छा लिखा है
कमठे धरणेन्द्रे च स्वोचितं कर्म कुर्वति । प्रभुस्तुल्यमनोवृत्तिः पार्श्वनाथः श्रियेस्तुवः । ।
अर्थात् एक ओर कमठासुर ने आपको महान् कष्ट दिए, और दूसरी ओर नागराज धरणेन्द्र ने आपको उपसर्ग से बचा कर महती सेवा - भक्ति की, परन्तु आपका दोनों ही व्यक्तियों पर एक समान ही सद्भाव था, न कमठ पर द्वेष और न धरणेन्द्र पर अनुराग । चातुर्याम धर्म का उपदेश
श्री पार्श्व प्रभु आरम्भ से ही दया, क्षमा एवं शान्ति के अवतार थे । उनकी यह क्षमा-धर्म की साधना इसी जन्म से शुरु नहीं हुई थी । जैन - पुराणों के अनुसार वे नौ जन्म से क्षमा का पाठ अपने अन्तस्तल में उतारते आ रहे थे। अपने विरोधी कमठ पर जो निरन्तर नौ जन्म तक साथ में रहकर कष्ठ देता रहा था, जरा भी क्रोध नहीं किया ।
अस्तु, उनकी यह साधना अन्तिम जन्म में पूर्ण शिखर पर पहुँची और यहाँ कैवल्य प्राप्त कर अहिंसा, सत्य, अस्तेय और अपरिग्रहरूप चातुर्याम धर्म के साधना - मार्ग का जनता में सर्वत्र प्रचार किया । विवेकशून्य क्रिया - काण्डों में उलझी हुई जनता को उन्होंने विवेकप्रधान सदाचार के पथ पर अग्रसर किया और संसार में अहिंसा की दुन्दुभि फिर से बजाई। श्री पार्श्वनाथ ने क्या किया, इस सम्बन्ध में मैं अपनी ओर से कुछ न कहकर सुप्रसिद्ध बौद्ध विद्वान् श्री धर्मानन्द कौशाम्बी का लेख उद्धृत किए देता हूँ ।
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भगवान पार्श्वनाथ (29) www.jainelibrary.org
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