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पैंतालीस प्रागम
उत्तराध्ययन सूत्र छत्तीस अध्ययनों में विभक्त है । समवायांग सूत्र के छत्तीसवें समवाय में उत्तराध्ययन के छत्तीस अध्ययनों के शीर्षकों का उल्लेख है, जो उत्तराध्ययन में प्राप्त अध्ययनों के नामों से मिलते हैं । उत्तराध्ययन के जीवाजीवविभक्ति संज्ञक छत्तीसवें अध्ययन के अन्त में अग्रांकित शब्दों में इस ओर संकेत है: "भवसिद्धिक जीवों के लिये सम्मत उत्तराध्ययन क े छत्तीस अध्ययन प्रादुर्भूत कर ज्ञातपुत्र सर्वज्ञ भगवान् महावीर परिनिवृत मुक्त हो गये । " " उत्तराध्ययन के नाम सम्बन्धी विश्लेषण के प्रसंग में यह चर्चित हुआ ही है कि भगवान् महावीर ने अपने अन्त समय में इन छत्तीस अध्ययनों का व्याख्यान किया ।
नियुक्तिकार का श्रभिमत
नियुक्तिकार प्राचार्य भद्रबाहु का अभिमत उपर्युक्त पारम्परिक मान्यता के प्रतिकूल है । उन्होंने इस सम्बन्ध में नियुक्ति में लिखा है: "उत्तराध्ययन के कुछ अध्ययन अंग-प्रभव हैं, कुछ जिनभाषित हैं, कुछ प्रत्येकबुद्धों द्वारा निर्देशित हैं, कुछ संवाद- प्रसूत हैं । इस प्रकार बन्धन से छूटने का मार्ग बताने के हेतु उसके छत्तीस अध्ययन निर्मित हुए ।" "
चूर्णिकार श्री जिनदास महत्तर और बृहद्वृत्तिकार वादिवैताल श्री शान्तिसूरि ने नियुक्तिकार के मत को स्वीकार किया है । उनके अनुसार उत्तराध्ययन के दूसरे परिषहाध्ययन की रचना द्वादशांगी के बारहवें अंग दृष्टिवाद के कर्मप्रवादसंज्ञक पूर्व के ७० वें प्राभृत के आधार पर हुई है । अष्टम कापिलीय अध्ययन कपिल नामक प्रत्येक
१. इह पाउकरे बुद्ध गायये परिणिव्वए ।
छत्तीसं उत्तरज्झाए, भवसिद्धिय सम्मए ॥
२. जैन - परम्परा में ऐसा माना जाता है कि दीपावली की अन्तिम रात्रि में भगवान् महावीर ने इन छत्तीस अध्ययनों का निरूपण किया ।
३. गप्पभवा जिरणभासिया य पत्ते यबुद्धसंवाया ।
वंधे मुक्या कया, छत्तीसं उत्तरज्भयरणा । ।
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- नियुक्ति, गाथा ४
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