Book Title: Jainagama Digdarshan
Author(s): Nagrajmuni, Mahendramuni
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur

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Page 172
________________ पैतालीस प्रागम १५५ आसपास घूमता हुआ उसके पार्श्व के पदार्थों को देखता है, दूसरे स्थान में रहे हुए पदार्थों को अन्धकार के कारण नहीं देख सकता, उसी प्रकार अनानुगामिक अवधिज्ञान जिस क्षेत्र में उत्पन्न होता है, उसी क्षेत्र के संख्येय तथा असंख्येय योजन तक के सम्बद्ध या असम्बद्ध पदार्थों को जानता व देखता है। उससे बाहर के पदार्थों को नहीं जानता। जो प्रशस्त अध्यवसाय में स्थित है तथा जिसका चारित्र परिणामों की विशुद्धि से वर्धमान है, उसके ज्ञान की सीमा चारों ओर से बढ़ती है । इसी को वर्धमान अवधिज्ञान कहते हैं। अप्रशस्त अध्यवसाय में स्थित साधु जब संक्लिष्ट परिणामों से संक्लिश्यमान चारित्र वाला होता है, तब चारों ओर से उसके ज्ञान की हानि होती है। यही हीयमान अवधि का स्वरूप है। जो जघन्यतया अंगुल के असंख्यातवें भाग अथवा संख्यातवें भाग यावत् योजनलक्ष पृथकत्व एवं उत्कृष्टतया सम्पूर्ण लोक को जानकर फिर गिर जाता है, वह प्रतिपातिक अवधिज्ञान है। अलोक के एक भी आकाश प्रदेश को जानने व देखने के बाद आत्मा का अवधिज्ञान अप्रतिपातिक होता है । विषय की दृष्टि से अवधिज्ञान चार प्रकार का है : १. द्रव्यविषयक, २. क्षेत्रविषयक ३. काल विषयक और ४. भाव विषयक । द्रव्य दृष्टि से अवधिज्ञानी जघन्य अर्थात् कम से कम अनन्त रूपी द्रव्यों को जानता व देखता है और उत्कृष्ट अर्थात् अधिक से अधिक सभी रूपी द्रव्यों को जानता व देखता है । क्षेत्र की दृष्टि से अवधिज्ञानी जघन्य अंगल के असंख्यातवें भाग को जानता व देखता है और उत्कृष्ट लोकप्रमाण असंख्य खण्डों को ( अलोक में ) जानता व देखता है। काल की दृष्टि से अवधिज्ञानी जघन्य प्रावलिका के असंख्यातवें भाग को जानता-देखता है और उत्कृष्ट असंख्य उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी रूप अतीत तथा अनागत काल को जानता - देखता है। भावष्टि से अवधिज्ञानी जघन्य अनन्त भावों (पर्यायों) को जानता व देखता है एवं उत्कृष्टतया भी अनन्त भावों को जानता देखता है, समस्त भावों के अनन्तवें भाग को जानता व देखता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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