Book Title: Jainagama Digdarshan
Author(s): Nagrajmuni, Mahendramuni
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur

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Page 189
________________ १७२ नाम : श्रभिप्राय ३. महापच्चवखारण ( महाप्रत्याख्यान ) जैनागम दिग्दर्शन असत् अशुभ या प्रकरणीय का प्रत्याख्यान या त्याग जीवन की यथार्थ सफलता का परिपोषक है । यह तथ्य ही वह प्राधार - शिला है, जिस पर धर्माचरण टिका है । प्रस्तुत कृति में इसी पृष्ठ भूमि पर दुष्कृत की निन्दा की गयी है। त्याग के महान् आदर्श की उपादेयता का इसमें विशेष रूप से उल्लेख किया गया है । सम्भवतः इसी कारण इसकी संज्ञा महा प्रत्याख्यान की गयी । विषय-वस्तु पौद्गलिक भोगों का मोह या लोलुप भाव व्यक्ति को पवित्र तथा संयत जीवन नहीं अपनाने देता। पौद्गलिक भोगों से प्राणी कभी तृप्त नहीं हो सकता । उनसे संसार भ्रमण उत्तरोत्तर बढ़ता ही जाता है । एतन्मूलक विषयों का विश्लेषण करते हुए प्रस्तुत कृति में माया का वर्जन, तितिक्षा एवं वैराग्य के हेतु, पंच महाव्रत, ग्राराधना आदि विषयों का विवेचन किया गया है । अन्ततः यही सिद्ध करने का प्रयास किया गया है कि प्रत्याख्यान ही सिद्धि प्राप्त करने का हेतु है । प्रस्तुत प्रकीर्णक में एक सौ बयालीस गाथाएं हैं । ४. मत्त - परिण्णा (भक्त-परिज्ञा) नामः श्राशय भक्त भोजन वाची है और परिज्ञा का सामान्य अर्थ ज्ञान, विवेक या पहिचान है । स्थानांग सूत्र में परिज्ञा का एक विशेष अर्थ 'ज्ञानपूर्वक प्रत्याख्यान' किया गया है | Jain Education International जैन धर्म में भक्त-परिज्ञा अनशनपूर्वक मरण के भेदों में से एक है । प्रातुर- प्रत्याख्यान के सन्दर्भ में जैसा कि विवेचन किया गया है, रुग्णावस्था में साधक आमरण अनशन स्वीकार कर पण्डित-मरण प्राप्त करता है, भक्त-परिज्ञा की स्थिति उससे कुछ भिन्न प्रतीत होती है | वहां दैहिक अस्वस्थता की स्थिति का विशेष सम्बन्ध नहीं है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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