Book Title: Jainagama Digdarshan
Author(s): Nagrajmuni, Mahendramuni
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur

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Page 201
________________ १८४ जैनागम दिग्दर्शन दर्शन एवं प्राचार-शास्त्र के विविध पक्षों के प्रामाणिक तथा शोधपूर्ण अध्ययन आदि अनेक दृष्टियों से इस पंचांगी साहित्य के व्यापक और गम्भीर परिशीलन की वास्तव में बहुत उपयोगिता है। निज्जुत्ति (नियुक्ति) व्याख्याकार आचार्यों व विद्वानों के अनुसार सूत्रों में जो नियुक्त है, निश्चित किया हुआ है, वह अर्थ जिसमें निबद्ध हो-समीचीनतया सनिवेशित हो-यथावत् रूप में निर्दिष्ट हो, उसे नियुक्ति कहा जाता है। नियुक्तिकार इस निश्चय को लेकर चलते हैं कि वे सूत्रों का सही तथ्य यथावत् रूप में प्रस्तुत करें, जिससे पाठक सूत्रगत विषय सही रूप में हृद्गत कर सके। पर. जिस संक्षिप्त और संकेतमय शैली में नियुक्तियां लिखी गयी हैं, उससे यह कम सम्भव लगता है कि उन्हें भी बिना व्याख्या के सहजतया समझा जा सके। यद्यपि विवेच्य विषयों को समझाने के हेतु अनेक उदाहरणों, दृष्टान्तों तथा कथानकों का उनमें प्रयोग हरा है, पर, उनका संकेत जैसा कर दिया गया है, स्पष्ट और विशद वर्णन नहीं मिलता। ऐसी मान्यता है कि नियुक्तियों की रचना का आधार गुरु-परम्परा प्राप्त पूर्व-मूलक वाङमय रहा है। .. श्रमणवृन्द आगमिक विषयों को सहजतया मुखाग्र रख सके, नियुक्तियों की रचना के पीछे सम्भवतः यह भी एक हेतु रहा हो । ये आर्याछन्द में गाथाओं में हैं। इसलिए इन्हें कण्ठस्थ रखने में अपेक्षाकृत अधिक सुगमता रहती है। कथाएं, दृष्टान्त आदि का भी संक्षेप में उल्लेख या संकेत किया हया है। उससे वे मूल रूप में उपदेष्टा श्रमणों के ध्यान में आ जाते हैं, जिनसे वे उन्हें विस्तार से व्याख्यात कर सकते हैं। ऐतिहासिकता ... व्याख्या-साहित्य में नियुक्तियां सर्वाधिक प्राचीन हैं। पिण्डनियुक्ति तथा ओघ-नियुक्ति की गणना प्रागमों के रूप में की गयी है। इससे यह स्पष्ट होता है कि पांचवी ई० शती में वलभी में हई आगम-वाचना, जिसमें अन्ततः प्रागमों का संकलन एवं निर्धारण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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