Book Title: Jainagama Digdarshan
Author(s): Nagrajmuni, Mahendramuni
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 206
________________ आगमों पर व्याख्या - साहित्य १८६ चूर्णियों के रूप में जैन साहित्य को ही नहीं, प्रत्युत भारतीय वाङ् मय को अनुपम देन देने वाले मनीषी श्री जिनदास गणी महत्तर थे । वे वाणिज्य कुलोत्पन्न थे । धर्म-सम्प्रदाय की दृष्टि से वे कोटिक - गण के अन्तर्गत वज्र - शाखा से सम्बद्ध थे । इतिहासज्ञों के अनुसार उनका समय षष्ठ शती ईसवी के लगभग माना जाता है । 1 जसलमेर के भण्डार में दशवैकालिक चूर्णि की क प्राचीन प्रति मिली है, जिसके रचयिता स्थविर अगस्त्यसिंह हैं। उनका समय विक्रम की तृतीय शती माना जाता है। उससे प्रकट होता है कि श्री देवगणी क्षमाश्रमण के नेतृत्व में समायोजित वाचना से भी लगभग दो-तीन शती पूर्व ही वह रची जा चुकी थी । श्रागम-महोदधि स्वर्गीय मुनि पुण्यविजयजी द्वारा उसका प्रकाशन किया गया है। श्री जिनदास गणी महत्तर द्वारा रचित दशवैकालिक चूर्णि के नाम से जो कृति विश्रुत है, उसे प्राचार्य हरिभद्रसूरि ने वृद्ध विवरण के नाम से अभिहित किया है । महत्त्वपूर्ण चूरियाँ भारतीय लोक-जीवन के अध्ययन को दृष्टि से सभी चूर्णियों में यत्र-तत्र बहुत सामग्री विकीर्ण है, पर, निशीथ की विशेष चूर्णि तथा प्रावश्यक चूर्णि का उनमें अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान है । इनमें जैन इतिहास, पुरातत्व, तत्कालीन समाज आदि पर प्रकाश डालने वाली विशाल सामग्री भरी है । लोगों का खान-पान, वेश-भूषा, आभूषण, सामाजिक, धार्मिक एवं लौकिक रीतियां, प्रथाएं, समाज द्वारा स्वीकृत नैतिक मापदण्ड, समय-समय पर पर्व दिनों के उपलक्ष्य में आयोजित होने वाले मेले, समारोह, जनता द्वारा मनाये जाने वाले त्योहार, व्यवसायिक स्थिति, व्यापार मार्ग, ओक समुदाय के साथ व्यापारार्थ दूर-दूर समुद्र पार तक जाने वाले बड़े-बड़े व्यवसायी (सार्थवाह), उपज, दुर्भिक्ष, दस्यु, तस्कर आदि अनेक ज्ञातव्य विषयों का विविध प्रसंगों के बीच इन चूर्णियों में विवेचन हुआ है । स्पष्टतः पता चलता है कि जैन ग्राचार्य तथा सन्त जन-जन को धर्म - प्रतिबोध देने के निमित्त कितने समुद्यत रहे हैं। यही कारण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 204 205 206 207 208 209 210 211 212